मित्रों!
सोमवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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गुरू और शिष्य
शिक्षक दिवस पर विशेष
गुरू रहे ना देव सम, शिष्य रहे ना भक्तबदली दोनों की मती, बदल गया है वक्त !
शिक्षक व्यापारी बना, बदल गया परिवेशत्याग तपस्या का नहीं, रंच मात्र भी लेश...
गुरू रहे ना देव सम, शिष्य रहे ना भक्तबदली दोनों की मती, बदल गया है वक्त !
शिक्षक व्यापारी बना, बदल गया परिवेशत्याग तपस्या का नहीं, रंच मात्र भी लेश...
Sudhinama पर sadhana vaid
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तेज़ होती हुई साँसें...
परवीन शाकिर
24 नवम्बर 1952 - 26 दिसम्बर 1994
चेहरा मेरा था निगाहें उसकी
खामोशी में भी वो बातें उसकी
मेरे चेहरे पे ग़ज़ल लिखती गई
शेर कहती हुई आँखें उसकी...
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औकात.....
रचनाकार अज्ञात
एक माचिस की तिल्ली,
एक घी का लोटा,
लकड़ियों के ढेर पे,
कुछ घण्टे में राख.....
बस इतनी-सी है
आदमी की औकात...
मेरी धरोहर पर yashoda Agrawal
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चिड़िया:
शब्द
शब्द मानव की अनमोल धरोहर
ईश्वर का अनुपम उपहार,
जीवन के खामोश साज पर
सुर संगीत सजाते शब्द !!!
अनजाने भावों से मिलकर
त्वरित मित्रता कर लेते,
और कभी परिचित पीड़ा के
दुश्मन से हो जाते शब्द...
आपका ब्लॉग पर Meena Sharma
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केरल और नम्बूदिरीपाद
ई.एम.एस. नम्बूदिरीपाद विश्व में विरल कम्युनिस्टों में गिने जाते हैं। आम तौर पर कम्युनिस्टों की जो इमेज रही है उससे भिन्न इमेज ईएमएस की थी। मुझे निजी तौर पर ईएमएस से सन् 1983 की मई में मिलने और ढ़ेर सारी बातें करने का पहलीबार मौका मिला था...
Randhir Singh Suman
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शायद एक जैसी ही है
झोंपड़ी में जन्मे बच्चे
और नाली के पास खिले
फूल की तकदीर ,
शायद एक जैसी ही है ...
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अंतर्द्वन्द
आज पहली बार एहसास हुआ कि, दूसरों को खोने के मुकाबले खुद को खोने का दर्द बहुत अधिक होता है।। रोज की तरह आज भी कुछ बिछड़े हुए अजीजों की याद में खोया हुआ था, तब याद आयी उस बिछड़े हुए विनीत की भी, जो हसमुख था, कभी उदास नही होता था, कभी बात की इतनी चिंता नही करता था, जिसको किसी के आने या जाने से कोई फर्क नही पड़ता था, जिसको चिंता नही थी कि कोई उसके बारे में क्या सोचता है, जो अपनो धुन मग्न रहता था, जिसका मन एकाग्र था, जो ज्यादा सोचता नही था, जिसको हसने के लिए झूठी मुस्कान की जरूरत नही थी, आज वो विनीत खो गया है...
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जिओ और जीने दो
ख़ुद जिओ अपने जियें, और काल-कवलित हो जायें।
कितना नाज़ां / स्वार्थी और वहशी है तू ,
तेरे रिश्ते रिश्ते हैं औरों के फ़ालतू।
चलो अब फिर समझदार, नेक हो जायें,
अपनी ज़ात फ़ना होने तक क्यों बौड़म हो जायें....
कविता मंच पर
Ravindra Singh Yadav
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मुसीबतों का
‘अपना घर’
याने बैंक ऑफ बड़ौदा
मेरे इस लिखे को बैंक ऑफ बड़ौदा के खिलाफ माना जाएगा जबकि हकीकत यह है कि मैं अपना घर सुधारने की कोशिश कर रहा हूँ। अब तो यह भी याद नहीं कि इस बैंक में खाता कब खुलवाया था। लेकिन यह बात नहीं भूली जाती कि पहले ही दिन से इस बैंक में मुझे ‘घराती’ जैसा मान-सम्मान और अपनापन मिला। पहले ही दिन से मेरी खूब चिन्ता की जाती रही है। थोड़े लिखे को ज्यादा मानिएगा कि बैंकवालों का बस चले तो बैंकिंग सेवाओं के लिए मुझे घर से बाहर भी न निकले दें। अब, ऐसे में मैं इसके खिलाफ जब सोच ही नहीं सकता तो भला लिखूँगा क्या और कैसे? मेरा खाता इस बैंक की, मेरे कस्बे की स्टेशन रोड़ स्थित शाखा में है...
सुप्रभात शास्त्री जी !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सूत्र एवं पठनीय सामग्री आज के चर्चामंच में ! मेरी प्रस्तुति को सम्मिलित करने के लिए आपका हृदय से धन्यवाद एवं आभार !
शुभ प्रभात मयंक भाई जी
जवाब देंहटाएंआभार, आभार और फिर से
आभार..
सादर
सुन्दर लिंक्स.मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंपठनीयता को नया आयाम देता आज का चर्चामंच उल्लेखनीय है।
जवाब देंहटाएंसभी चयनित रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाऐं।
मेरी कविता मंच पर रचना "जिओ और जीने दो " को चर्चामंच में स्थान मिलने पर अभिभूत हूँ।
आभार आदरणीय शास्त्री जी।
सादर।
बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
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