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शनिवार, सितंबर 16, 2017

"हिन्दी से है प्यार" (चर्चा अंक 2729)

मित्रों!
शनिवार की चर्चा में आपका स्वागत है। 
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 

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दोहे  

"हिन्दी से है प्यार" 

हिन्दी भाषा का हुआ, दूषित विमल-वितान।स्वर-व्यंजन की है नहीं, हमको कुछ पहचान।।
बात-चीत परिवेश में, अंग्रेजी उपलब्ध।क्यों हमने अपना लिए, विदेशियों के शब्द।।
सिसक रही है वर्तनी, खिसक रहा आधार।अपनी हिन्दी का किया, हमने बण्टाधार।।
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अथ मच्छरनामा ! 

कुछ अलग सा पर गगन शर्मा 
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हिंदी :  

कुछ क्षणिकाएं 

 रौशनी जहाँ पहुंची नहीं 
वहां की आवाज़ हो भाषा से 
कुछ अधिक हो तुम हिंदी... 
सरोकार पर Arun Roy 
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हिंदी दिवस 

सभी मित्रों को हिंदी दिवस की 
हार्दिक शुभकामनाएं 
हिंदी मेरी पहचान है 
हिंदी से ही सम्मान है 
ये नाम यश जो दिए 
हिंदी तेरा एहसान है  
रजनी मल्होत्रा नैय्यर 
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रात रागिनी 

बादलों ने रात संग इक तान छेड़ी  
फूल महके पत्तियां भी गुन गुना दीं  
रजनीगंधा मस्त थिरकी ,  
बावली कोयल कहीं से कुहू कुहाई ..  
सरसराती पवन गूँजी .. 
Manjula Saxena - 
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जन्मदिन मुबारक हो !! 

ओह मेरी मातृभाषा
तुम कितनी शांत सी हो
निर्मल सी
कटुता की भाषा तुम्हे आती नहीं
दिल भर जाता है
जब कोई खुद के लफ़्ज़ों में
तुम्हे पिरोता है
जब कोई खुद को
बयां करता है
फिर भी आज की समझ कुछ
अजब सी है
शायद किसी को याद भी नहीं
कि  आज तुम्हारा दिन है
अपनी मातृभाषा का जन्मदिन है
कहने को हम सब कुछ याद रखतें हैं
सारे दिवस मनातें  है
तो आज हम तुम्हारा दिन कैसे भूल गए
मुबारक हो तुमको ये दिन ये साल
मुबारक हो तुमको तुम्हारी पहचान!! 
Pratibha Verma पर Pratibha Verma  
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हिंदी दिवस पर विशेष माथे की बिंदी आबरू का शाल है हिंदी , है देश मिरा भारत ,टकसाल है हिंदी। है आरती का थाल मिरी सम्पदा हिंदी , संपर्क की सांकल सभी है खोलती हिंदी। गुरुग्रंथ ,दशम ग्रन्थ भली रही हो कुरआन , एंजिल हो धम्मपद भले फिर चाहें पुराण , है शान में सबकी मिरी लिखती रही जुबान , हैं सबके सब स्वजन मिरे ,सबकी मेरी हिंदी। कर जोड़ के प्रणाम करे ,आपको हिंदी। है शान में सबकी मिरी , लिखती रही जुबान , शोभा में सबकी शान में, लिखती मिरी हिंदी। मैं तमाम हिंदी सेवकों को उनकी दिव्यता को प्रणाम करता हूँ। 

Virendra Kumar Sharma ... 
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ब्राह्मण की पोथी लुटी 

और बणिये का धन लुटा 

हम बनिये-ब्राह्मण उस सुन्दर लड़की की तरह हैं जिसे हर घर अपनी दुल्हन बनाना चाहता है। पहले का जमाना याद कीजिए, सुन्दर राजकुमारियों के दरवाजे दो-दो बारातें खड़ी हो जाती थी और तलवार के जोर पर ही फैसला होता था कि कौन दुल्हन को ले जाएगा? तभी से तो तोरण मारने का रिवाज पैदा हुआ था... 
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कुछ कतरनें ::  

बियाबान में चलते-चलते 

ऐसे कैसे सीधी सरल रहती, 
वक्र हो गयी, 
ये खुद से ही है हारी दुनिया 
गलती हमारी ही होगी, 
जाने क्या हुआ, 
रहने लायक रही नहीं हमारी दुनिया ... 
अनुशील पर अनुपमा पाठक 

6 टिप्‍पणियां:

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