मित्रों!
रविवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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वो हिन्दी बोलते हैं
घर हिन्दी बोलता है! अक्षांश कार को पार्किंग में खड़ा कर ड्राईङ्ग रूम में सोफ़े पर विराजमान हुआ ।चेहरे के भाव असंयमित व मन उद्विग्न था तभी उसकी माँ डिम्पल गौरांग ने कमरे में प्रवेश किया, और सामने आलीशान सोफ़े पर बैठ गई । क्या बात है इतने उखड़े उखड़े से लग रहे हो शैरी...
udaya veer singh
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अभी अभी पैदा हुआ है
बहुत जरुरी है बच्चा
दिखाना जरूरी है
जब भी तू
समझाने की
कोशिश करता है
दो और दो चार
कोई भाव
नहीं देता है
सब ही कह देते हैं
दूर से ही नमस्कार...
समझाने की
कोशिश करता है
दो और दो चार
कोई भाव
नहीं देता है
सब ही कह देते हैं
दूर से ही नमस्कार...
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एक अनमोल पत्थर सी मैं ...
जब जब ठोकरों से तराशी जाती हूँ
ये विश्वास और भी पल्लवित होता है
हाँ ! मैं हूँ हीरा ...
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बातों वाली गली :
चारू शुक्ला की नज़र में
अपनी रचनाओं का किताब के रूप में प्रकाशित होना, लोगों के हाथों में किताब का पहुंचना और फिर सुधि पाठकों की उस पर प्रतिक्रिया आना कितना सुखद है ये वही समझ सकता है, जिसकी पहली किताब प्रकाशित हुई हो. बाद की किताबों के लिये शायद उतना रोमांच न रह जाता हो. " बातों वाली गली" पर प्रतिक्रियाएं मिलनी शुरु हो गयी हैं, जिन्हें मैं क्रमश: यहां पोस्ट करूंगी. तो ये रही पहली प्रतिक्रिया चारु शुक्ला जी की- चारु जी ने इस किताब पर एक गीत भी रच डाला है, उसका वीडियो भी देखें...
अपनी बात...पर वन्दना अवस्थी दुबे
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तुम और मैं
मैं सिर्फ
हाँ और ना
में गुम
और तुमने
अपने शब्दकोश
के सारे शब्द
उडेल दिये
बोलो___विचित्र
तुम या मैं...
हाँ और ना
में गुम
और तुमने
अपने शब्दकोश
के सारे शब्द
उडेल दिये
बोलो___विचित्र
तुम या मैं...
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इस पाठशाला में
जीवन क्या कुछ नहीं सिखाता है
इस पाठशाला में
हर अच्छा-बुरा अनुभव
कंठस्थ हो जाता है...
अनुशील पर अनुपमा पाठक
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यह संसार नाम और रूप ही है।
दोनों को विलगाया नहीं जा सकता।
नाम का लोप होते ही संसार का लोप हो जाएगा।
इसीलिए ओंकार की पुनरावृत्ति
उसे साकार कर देती है
जिसको यह सम्बोधित है।
Virendra Kumar Sharma
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मदद
मैं सोया हुआ हूँ,
पर साँसें चल रही हैं,
दिल धड़क रहा है,
रक्त शिराओं में बह रहा है.
मैं सोया हुआ हूँ,
पर ये सब जाग रहे हैं,
काम पर लगे हुए हैं,
ताकि मैं सो भी सकूं,
ज़िन्दा भी रह सकूं.
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रेलगाड़ी
रेलगाड़ी में बैठ कर
रेलगाड़ी पर व्यंग्य लिखने का
मजा ही कुछ और है।
बन्दा जिस थाली में खायेगा
उसी में तो छेद कर पायेगा।
दूसरा कोई अपनी थाली क्यों दे भला...
बेचैन आत्मा पर देवेन्द्र पाण्डेय
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ये मेहनतकश औरतें
नाम तो कभी जान ही नहीं पाए
जिसने बचपन में सम्हाला
हमें जान से ज्यादा
सिर्फ बाई कहते थे हम तीनो भाई उसे
मां हम तीनों को हवाले कर
उसके स्कूल चली जाती...
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शुभ प्रभात..
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
सुन्दर लिंक्स. मेरी कविता शामिल की. आभार.
जवाब देंहटाएं'क्रांतिस्वर 'की पोस्ट को इस अंक मे शामिल करने हेतु आभार।
जवाब देंहटाएंसुन्दर रविवारीय अंक। आभार आदरणीय 'उलूक' के सूत्र को भी स्थान देने के लिये।
जवाब देंहटाएंशामिल करने हेतु धन्यवाद ..
जवाब देंहटाएंहिंदी ब्लॉगिंग की ज्योति निरन्तर जलाए रखने के लिए आप का यह एकल प्रयास स्तुत्य है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबेहरतीन लिंक्स एवं प्रस्तुति .... आभार
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर संयोजन ।मेरी रचना को स्थान देने पर तहेदिल से शुक्रिया ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर संयोजन। मेरी रचना को स्थान देने पर तहे दिल से शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचनाओं के सूत्र । सादर धन्यवाद ।
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