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मंगलवार, सितंबर 26, 2017

रजाई ओढ़कर सोता, मगर ए सी चलाता है; चर्चामंच 2739

रजाई ओढ़कर सोता, मगर ए सी चलाता है 

रविकर 
खलिश बढ़ती रही घर में, मगर कुछ बोल ना पाता।
फजीहत जब हुई ज्यादा, शहर को रंग दिखलाता।

रजाई ओढ़कर सोता, मगर ए सी चलाता है।
नहाकर पूत गीजर को, खुला ही छोड़ जाता है।
सतत् चलता रहे टी वी, जले दिन रात बिजली भी
नहीं कोई सुने घर में, बढ़ा बिल जान खाता है।
बढ़ा जो रेट बिजली का, मियां तब खूब झल्लाता।
फजीहत जब हुई ज्यादा, शहर को रंग दिखलाता।। 

माँ ... 

पाँच साल ... 
क्या सच में पाँच साल हो गए माँ को गए ... 
नियति के नाम पे कई बार 
नाकाम कोशिश करता हूँ 
खुद को समझाने की ...  
Digamber Naswa 

किताबों की दुनिया -144 

नीरज गोस्वामी 

संघर्ष विराम 

Arun Roy 

भौतिक -विज्ञानों के झरोखे से 

Virendra Kumar Sharma 

दो समसामयिक कवितायें 

कैसे लौट गए तुम 
गाय भैंसों के व्यवसायिक मेले में भाषण देकर 
तनिक भी धुंजे नहीं तुम 
एक बार भी नहीं पूछा कि ये क्यों हुआ... 
ज़िन्दगीनामा पर Sandip Naik 

वट वृक्ष 

समय के थपेड़ों ने 
सबक़ ऐसा सिखा दिया 
लोहा भी आग में दमक 
सोना सा निख़ार पा गया... 
RAAGDEVRAN पर MANOJ KAYAL  

बेटी फरियादी नहीं हो सकती ..... 

udaya veer singh 

कार्टून :- वामी आया वामी आया ... 

न भाई ! शादी न लड्डू 

Shalini Kaushik 

'न्यूटन' से...'द न्यूटन' तक! 

noreply@blogger.com (सतीश पंचम) 

ब्रह्मोत्सव की स्मृतियाँ 

ऋषभ देव शर्मा 

पाताल भुवनेश्वर की यात्रा 

नीरज जाट 

चंद्रघंटा माँ ( कुण्डलिया ) 

सरिता भाटिया 

दोहे  

"माता का गुण-गान" 

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')  


5 टिप्‍पणियां:

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