मित्रों!
मंगलवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
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भीख का कटोरा और ‘नेट लॉस’
आज दादा की पहली बरसी है। पूरा एक बरस निकल गया उनके बिना। लेकिन कोई दिन ऐसा नहीं निकला जब वे चित्त से निकले हों। उनकी मौजूदगी हर दिन, हर पल अनुभव होती रही। वे मेरे मानस पिता थे। मुझमें यदि कुछ अच्छा, सन्तोषजनक आ पाया तो उनके ही कारण। वे दूर रहकर भी मुझ पर नजर रखते थे। मेरे बारे में कुछ अच्छा सुनने को मिलता तो फोन पर सराहते थे। कुछ अनुचित सुनने को मिलता तो सीधे मुझे कुछ नहीं कहते...
एकोऽहम् पर विष्णु बैरागी
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गालियों का
सामाजिक महत्व
एवं भाषा में उनकी उपयोगिता
सुजलाम सुफलाम, मलयज शीतलाम//शस्यश्यामलाम, मातरम//शुभ्रज्योत्स्ना पुलाकितायामिनिम//फुल्लाकुसुमिता द्रुमदला शोभिनीम//सुहासीनीम, सुमधुर भाषिणीम //सुखदम, वरदाम, मातरम// तिवारी जी भाव विभोर हुए मंच से आँख मींचे पूरे स्वर में गीत गा रहे थे. वे ’भाषा का स्तर और संयमित भाषा के महत्व’ पर बोलने के लिए आमंत्रित किये गये थे. वे सरकारी उच्च भाषा समिति के मनोनीत गैर सरकारी प्रदेश महासचिव हैं अतः उन्हें मुख्य अथिति भी बनाया गया था.पद बना रहे इस हेतु आजकल हर मंचों से अपने बोलने की शुरुवात इस गीत से करते हैं....
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अम्मा कभी नहीं हुई बीमार
अम्मा सुबह सुबह फटा-फट नहाकर अध-कुचियाई साड़ी लपेटकर तुलसी चौरे पर सूरज को प्रतिदिन बुलाती आकांक्षाओं का दीपक जलाती फिर दर्पण के सामने खड़ी होकर अपने से ही बात करतीं भरती चौड़ी लम्बी मांग सिंदूर की बिंदी माथे पर लगाते-लगाते सोते हुये पापा को जगाती सिर पर पल्ला रखते हुए कमरे से बाहर निकलते ही चूल्हे-चौके में खप जातीं-- तीजा,हरछ्ट,संतान सातें,सोमवती अमावस्या,वैभव लक्ष्मी जाने अनजाने अनगिनत त्यौहार में दिनभर की उपासी अम्मा कभी मुझे डांटती दौड़ती हुई छोटी बहन को पकड़ती बहुत देर से रो रहे मुन्ना को अपने आँचल में छुपाये पालथी मार कर बैठ जातीं थी...
Jyoti khare
मातृ दिवस की हार्दिक शुभकामनायें !
माँ को शब्दों के माध्यम से कविताओं या कहानियों में नहीं बाँधा जा सकता। इस कविता के माध्यम से मैने गाँव में रहने वाली माताओं के दिनभर के कठिन परिश्रम को दर्शाने की एक छोटी कोशिश की है। सुबह सवेरे सबसे पहले ,हर घर में जग जाती माँ। आँगन द्वारे झाड़ू लगाकर,फिर मीठी चाय बनाती माँ।।पशुओं को सानी लगाकर,गाय दोह कर लाती माँ...
Manoj Kumar
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माँ
माएँ हमेशा अपनी मर्जी चलाती हैं
अपने बच्चों को दुखों से बचाती हैं
रातों रात जागती हैं ..
पानी कहीं चला नही जाये सोचते सोचते
जल्दी उठ जाती हैं दुर्गा जैसे अष्ट भुजाओं से
काम निपटाती हैं एक हाथ से पानी भरती है ,
सब्जी बनाती हैं आटा गूँथती हैं
बच्चों को जगाती हैं
तभी तो माँ ... माँ कहलाती है ...
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मां
एक दिन ही क्यूँ❓ मां का मनाते हैं हम।
🌹 है कितना प्यार, दुनिया को बताते हैं हम।
🌹 नहीं गुजरता था ,जिसके बिना एक छिन।
🌹 हम मनाने लगे, उसके लिए एक दिन।
🌹 जिसकी आँचल की छाँव में ,पल कर बढे...
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एक ग़ज़ल :
वो रोशनी के नाम से --
वो रोशनी के नाम से डरता है आजतक
जुल्मत की हर गली से जो गुज़रा है आजतक...
आपका ब्लॉग पर
आनन्द पाठक
सुन्दर संकलन बढ़िया प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर संयोजन
जवाब देंहटाएंसभी रचनाकारों को बधाई
मुझे सम्मिलित करने का आभार
सादर
सुन्दर संकलन सभी रचनाकारों को बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर चर्चा प्रस्तुति 👌
जवाब देंहटाएंसभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनायें
सादर
बहुत ही सुन्दर संकलन
जवाब देंहटाएंसुन्दर संकलन
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सूत्रों का संकलन आज के चर्चामंच में ! मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार शास्त्री जी ! सादर वन्दे !
जवाब देंहटाएंविस्तृत चर्चा ...
जवाब देंहटाएंबहुत आभार मेरी ग़ज़ल को शामिल करने में लिए आज ...
सुंदर लिंकों का सुंदर संयोजन बहुत सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंकई अच्छे और सुरुचिपूर्ण लिंक्स मिले । बहुत -बहुत धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंकई अच्छे और सुरुचिपूर्ण लिंक्स मिले । बहुत ;बहुत धन्यवाद ।
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