नमस्कार मित्रों!
मैं मनोज कुमार एक बार फिर चर्चा मंच पर उपस्थित हूं। आज सुबह सुबह खिड़की से आ रही बरसते पानी की फ़ुहारों से निन्द खुली।
शनिवार है। बड़े फ़ुरसत में हूं। फ़ुरसत में एक स्तंभ लिखता हूं एक ब्लोग पर। कभी-कभार उसकी चर्चा कर दिया करता था, इस मंच पर। पर एक मित्र ने एक प्रश्न रख दिया सामने कि अपनी चर्चा में अपने पोस्ट का उल्लेख उचित है? अब उचित अनुचित का मैं नहीं जानता, पर उस दिन से इस पर विराम लगा दिया है। दुर्भाग्य मेरा कि मैं शनिवार को लिखता हूं। और उस दिन के पोस्ट की चर्चा मैं ही करता हूं। तो अपने पोस्ट को न लेने की ठान ली है, और दूसरे दिन कोई अन्य चर्चाकार ले नहीं पाते।
खैर ये हुई मेरे फ़ुरसत की फ़ुरसत से बातें। एक हैं अपने फ़ुरसतिया जी। उन्होंने पूरे किए हैं छह साल, ब्लॉग जगत की यात्रा के। कहते हैं “…..और मजाक-मजाक में छह साल निकल लिये!” इतनी लंबी यात्रा के संस्मरण सुनाते हुए बताते हैं,
“मेरे ब्लॉगजगत के छह साल के अनुभव बहुत मजेदार रहे। फ़ंटास्टिक! सच तो यह है कि दुनिया अद्भुत है। हर तरह का मसाला यहां रेडीमेड उपलब्ध है। अब गुणवत्ता फ़ुणवत्ता को मारिये गोली। अनुभव और लेखन का ताजापन देखिये। जो और कहीं नहीं मिलेगा वो हमीअस्तो,हमीअस्तो,हमीअस्तो।”
शैली तो सदाबहार है ही अनुभव मे बहार, पतझर, गर्मी, बारिस, धूप, नमीं, सब का मज़ेदार मिश्रण है। कहते हैं,
“किसी ने हड़काया संभल जाओ अनूप, किसी ने कहा आप मुझसे जलते हैं, किसी ने कहा मुकदमा कर देंगे। अभी हाल ही में किसी ने बताया कि मैं अपनी घटती लोकप्रियता से परेशान होकर ऊलजलूल पोस्टें लिख रहा हूं।ये छह साल मेरे बड़े मजे में बीते इतनी उदार पाठक मिले कि मुझे अपने बारे में गलतफ़हमी भी हुई कभी-कभी कि हम कोई फ़न्ने खां लेखक हैं। साथ ही ऐसे पाठक भी मिले जो पोस्ट-दर-पोस्ट बताते भी रहे कि ये ये चिरकुटई छोड़ दो।”
और जाते-जाते, उनकी ही शैली में अगर कहूं तो, एक अपनी पसंद की कविता ठेल गए हैं, जिसमें कहते हैं,
कभी सीरियस ही न दिखते,
हर दम हाहा ठीठी करते।
पांच साल से पिले पड़े हैं
ब्लाग बना लफ़्फ़ाजी करते॥
हम तो यही चाहेंगे फ़ुरसतिया जी कि आप कभी सीरियस न दिखें। आपका सीरियस चेहरा नहीं सुहाता है।
हमारे एक मित्र हैं, (आपके भी हैं) जो दुनिया की भीड़ के बीच अपना वजूद तलाशते हैं और तराशते हैं, एक आम आदमी हैं, जिनकी इंसान बनने की कोशिश जारी है .. ! आज कह रहे हैं
हर वक्त ! इश्कियाने को जी चाहता है......अजय कुमार झा
अब ये मौसम का असर है या और कुछ ये तो वही जाने। उनकी ही ज़ुबानी सुन लीजिए,
मुझे फ़िक्र है दस्तूरों ,
और, बंदिशों की, मगर ,
करूं क्या कि जी ,
बस यही ,और यही चाहता है ........
इस कमबख्त दिल की,
फ़ितरत ही कुछ ऐसी है,
जो मिलना हो मुश्किल
अक्सर , ये वही चाहता है ........
क्या – क्या … क्या कहा झा जी आपने … जाते जाते … अरे! पूरा तो बताइए ना प्लीज़ ….!
“
अब झा जी की वो ही जाने। अगर ये मौसम का असर है तो ये मौसम है ही खतरनाक! कभी तेज़ धूप, कभी झम-झम पानी। कभी गर्मी, तो कभी ठंडक। अब ऐसे में तबियत अगर खराब हो जाए तो … बच के रहिएगा। हां हमारी सहायता के लिए TSALIIM वाले ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ जी पूरी एनसाइक्लोपीडिया ले आए हैं।
स्वास्थ्य का एक ऐसा इंसाइक्लोपीडिया, जो हर किसी की ज़रूरत है।
565 पृष्ठों की यह वृहद पुस्तक अपने आप में रोग, रोगी और स्वास्थ्य सम्बंधी जानकारियों का प्रामाणिक भण्डार है। पुस्तक में कुल 27 अध्याय हैं, जिनमें मानव स्वास्थ्य के विभिन्न मुद्दों को बड़े सहज ढ़ंग से समझाया गया है। मूल्य मात्र 290 रू0 है। यह पुस्तक हिन्दी के अतिरिक्त सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में में उपलब्ध है।
ज़ाकिर भाई बहुत ही काम की जानकारी उपलब्ध करवाई है आपने।
ज़ाकिर भाई का प्रयास वंदनीय है। पर वंदना जी की प्रस्तुति पढकर मन विचलित हो गया। उनकी कविता एक सफ़र ऐसा भी……………………… नारी पराधीनता अथवा उससे संबंधित कड़वे सच को बयान करती है।
भार्या से
प्रेयसी बनने की
संपूर्ण चेष्टाओं
को धूल- धूसरित
करती तुम्हारी
हर चेष्टा जैसे
आंदोलित कर देती
मन को
यह कविता उस पूरी जाति के हालात पर चिंता करने को प्रेरित करती है। एक नारी द्वारा रचित नारी विषयक इस कविता में सीधे साधे सच्चे शब्दों में स्वानुभूति को बेहद ईमानदारी से अभिव्यक्त किया गया है। इसमें सदियों से मौजूद स्त्री विषयक प्रश्न ईमानदारी से उठाया गया हैं। अपनी शिकायत दर्ज कराई गई है। स्त्री नियति की परतों को उद्घाटित किया गया है।
प्रेयसी को भार्या
बनाया जा सकता है
मगर
भार्या कभी प्रेयसी
नहीं बनाई जाती
उस पर तो
अधिकारों का बोझ
लादा जाता है
यह कविता स्त्रियों के जीवन संघर्ष से हमारा सीधा और सच्चा साक्षात्कार करवाती है जो इस उम्मीद से अपने जीवन को संवारने की कोशिश करती रहती है कि एक दिन उनकी दुनिया संवर जाएगी।
इतना ना
समझ पाता है
प्रेयसी बनने की आग में
जलती भार्या का सफ़र
सिर्फ भार्या पर ही सिमट
जाता है
सिर्फ भार्या पर ही.................
समय कोई भी हो, कविता उसमें मौज़ूद जीवन स्थितियों से संभव होती है। वही जीवन- स्थितियां, जिनसे हम रोज़ गुज़रते हैं। एम. वर्मा जी की रचना इसी के चलते हमें अपनी जैसी लगती है। इसमें निहित यथार्थ जैसे हमारे आसपास के जीवन को दोबारा रचता है। ठूस ठूस कर भरी जा रही है रोशनी ~ ~ एक ऐसी ही रचना है जो महानगर के उस यथार्थ को चित्रित करती है जो आने वाले आयोजन को लेकर व्यस्त है।
विदेशी अट्टहास
आयातित करने के लिये
अलिखित समझौते
कर लिये गये है
मुस्कराहट के मुखौटे
बाजार में उतार दिये गये हैं
लोगों को तालीम दी गयी है
दुहराने के लिये
‘अतिथि देवो भव ...
बहुत सही कटाक्ष किया है आपने। लेकिन कौन सुनता है यहाँ। ये तो पत्त्थरों का शहर है!
सरोकार पर अरुण सी राय ने सड़क बानाई है। अरुण जी का कहना है अपने देश, समाज, अपने लोगों से सरोकार को बनाये रखने के लिए कविता को माध्यम बनाया है। आपने जीवन और प्रेम को इस कविता में ए़क साथ देखा है और कविता सड़क के माध्यम से सड़क की यात्रा को जीवन में प्रेम की यात्रा के रूप में लेते हुए कहते हैं,
सड़क
बनायी है
मैंने भी ए़क
अपने ह्रदय से
तुम्हारे ह्रदय तक
कई पगडंडियों को साथ ले
चलती है यह सड़क
जिसके दोनों ओर
हैं वृक्ष
भाव के,
संवेदनाओं के
खेत हैं
आपने जीवन को बेहद खूबसूरती से परिभाषित किया है सडक के माध्यम से और साथ ही संवेदनाओ और भावों का समन्वय भी खूब किया है। सरलता और सहजता का अद्भुत सम्मिश्रण बरबस मन को आकृष्ट करता है। चूंकि कविता अनुभव पर आधारित है, इसलिए इसमें अद्भुत ताजगी है।
बहुत अच्छी चर्चा।
ReplyDeleteआज की चर्चा बहुत ही प्रभावित करने वाली है!
ReplyDelete--
आशा है कि हमारे चर्चाकार आपकी बात पर ध्यान देंगे!
सही है। इसे बज पर देखा और पढ़ा। बज भी आजकल नेटवर्किंग का अच्छा रोल अदा कर रहा है।
ReplyDeleteमैं इस बात से कतई सहमत नहीं हूं कि चर्चा में अपनी पोस्ट की चर्चा नहीं करनी चाहिये। अगर कुछ पढ़ाने लायक हो तो उसकी चर्चा करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये।
अब आपकी यह रचना मुझे और दूसरे लोगों को अच्छी लगी:
तेरा आना
अगरबत्ती की सुगंध-सा!
उड़ जाता है
अवसाद मन का
प्रकाश में अंधेरे सा
जब तुम आ जाती हो!
तो इसका जिक्र करने में क्या संकोच! पसंद बताने में संकोच नहीं करना चाहिये चाहे पोस्ट अपनी ही क्यों न हो!
वाह! अच्छी चर्चा।
ReplyDelete*** राष्ट्र की एकता को यदि बनाकर रखा जा सकता है तो उसका माध्यम हिन्दी ही हो सकती है।
प्रभावशाली और सुन्दर शैली में चर्चा
ReplyDeleteआकर्षक लिंक्स
मनोज जी ब्लॉग्गिंग दुनिया में छः साल के सफ़र के लिए बधाई.. ए़क समय था जब अखबारों और पत्रिकाओं के साहित्य कि भी आलोचना होती थी.. उसी तरह ब्लॉग की भी आलोचना हो रही है.. लेकिन देखिये.. गंभीर साहित्य और गंभीर लेखक भी ब्लोगिंग की ओर रुख कर रहे हैं... देश की हिंदी साहित्य की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका "हंस" के पाठकों की बात करें तो लेखको को छोड़ दे तो हज़ार भी नहीं होंगे... लेकिन ए़क ए़क ब्लॉग पर १००-१५० हिट्स रोज होते हैं... तो जहाँ पाठक होंगे वहीँ साहित्य होगा... आज की चर्चा में वर्मा जी जैसे ब्लॉगर के साथ अपनी रचना को पाकर बहुत अच्छा लगा.. वंदना जी की कविता नारी मन की सबसे इमानदार प्रस्तुति है... सार्थक चर्चा के लिए धन्यबाद
ReplyDeleteआज की चर्चा बहुत प्रभावशाली है ...पाठकों को हर लिंक पर जाने के लिए प्रेरित करती हुई ...
ReplyDeleteऔर रही अपनी रचना की चर्चा करने की बात तो सबकी अपनी अपनी सोच होती है ...किसी की सोच को अपनी सोच पर हावी नहीं करना चाहिए ....
अनूप जी की बात सही है ...अच्छी चीज़ को पाठक तक अवश्य पहुँचाना चाहिए ...
सुन्दर चर्चा के लिए आभार
कुछ तो लोग कहेंगे लोगो का काम है कहना लेकिन अच्छी पोस्ट को तो सब को पढाना ही चाहिए अब चाहे वो आपकी हो या किसी और की.
ReplyDeleteआज की चर्चा अच्छी रही
बेशक छोटी मगर सारगर्भित चर्चा……………चर्चा तो हमेशा ऐसी ही होनी चाहिये जिस से पाठक को उसका मर्म समझ आये और आप तो इसमे माहिर हैं।
ReplyDeleteमनोज जी ………………आपकी आभारी हूं जो आपने मेरी रचना की इतनी गहराई से समीक्षा की।
आप सबके बारे मे सोचेंगे तो कुछ नही कर पायेंगे ये दुनिया आगे नही बढने देगी ………………।इसलिये जो भी अच्छा है पाठको के समक्ष प्रस्तुत करना ही चाहिये उसके बाद पाठक खुद तय कर लेंगे ।
बहुत लाजवाब और दिलचस्प चर्चा ...
ReplyDelete"कभी-कभार उसकी चर्चा कर दिया करता था, इस मंच पर। "
ReplyDeleteमंच तो सजा ही है इस-उस के लिए :)
अच्छी और सार्थक चर्चा है...
ReplyDeleteअपने चिट्ठे की चर्चा पाठकों तक संदेश पहुंचाने के लिए करने में कोई बुराई नहीं मानी जाने चाहिए.