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सोमवार, अक्तूबर 13, 2014

"स्वप्निल गणित" (चर्चा मंच:1765)

मित्रों।
सोमवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसंद के कुछ लिंक।
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हास्य रचना 

जब सुबह सुबह गर्मागर्म चाय का प्याला 
हमारी प्यारी श्रीमती जी ने 
मुस्कुराते हुए हमारे हाथ में थमाया 
उनकी प्रेम भरी आाँखो में 
हमे कुछ नज़र आया 
तभी उन्होंने हमारे हाथ में 
बिजली का बिल थमाया... 
Ocean of Bliss पर Rekha Joshi
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वही ख़ुदगर्ज़ 

वही ख़ुदगर्ज़ जो ठुकरा के मुझको चल दिया था कल
न जाने क्या क़यामत है के शब भर याद आया है...
चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’
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भय 

अँधेरे से गली में भौंकते कुत्तों से
 छत पर कूदते बंदरों से 
खेत में भागते सर्पों से 
अब नहीं डरता। 
दुश्मनों के वार से 
दोस्तों के प्यार से 
खेल में हार से 
दो मुहें इंसान से 
भूत से भगवान से 
अब नहीं डरता...
बेचैन आत्मा पर देवेन्द्र पाण्डेय
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संतुलन अथवा असंतुलन -  

अविनाश वाचस्‍पति 

(कविता) 

चलने वाले दो पैर पर 
अचरज नहीं होता 
न मुझे, न तुझे 
और न किसी अन्‍य को...।
अविनाश वाचस्पति पर नुक्‍कड़ 
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दोस्त मुझे पता था कि 

एक दिन वहां पहुंचोगे 

हाँ शायद न समझ आये कि 
मैं ऐसा क्यों लिख रहा हूँ और किस सन्दर्भ में... 
पर मेरे दोस्त तुम्हें यह अहसास हो जायेगा 
जब तुम पूरी लाईनों को 
एक बार एक सांस में पढ़ते चले जाओगे, 
याद रखना कवितायेँ सोच कर लिखी नहीं जाती है 
यह मेरी कलम अपने आप लिख डालती है 
और मुझे लिखने के बाद अहसास होता है कि 
कोई कविता लिख उठी है ........
Prabhat Kumar 
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व्रत 

Sunehra Ehsaas पर 
Nivedita Dinkar 
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तुम दवा होके देखो - 

मैं खुश हूँ इंसानियत की पनाह 
तुम खुदा होके देखो -

दर्द क्या होता है दिल लगाने का 
तुम जुदा होके देखो -
उन्नयन पर udaya veer singh 
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प्रेम का स्वप्निल गणित 

अपने गांव के,
इकलौते सरोवर के किनारे
जब तुम मेरा नाम लेकर,
फेंकती थी कंकण,
पानी की हिलोंरों के संग,
तब,
डूब जाया करता था मैं,
बहुत गहरे तक.....
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चांद की नाव में.... 

दुश्मनों  को  ज़रा  सहा  जाए 
आज  ख़ामोश   ही  रहा  जाए


फ़ित्रते-हुस्न  ही  अधूरी  है
चांद  को  क्यूं  बुरा  कहा  जाए... 
Suresh Swapnil 
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मेरे पुण्य-प्रसून... 

समय के साथ
बहता रहा जीवन
हम अनजाने ही
बोते रहे अपनी ज़मीन पर
यश-अपयश... 

मुक्ताकाश....पर 
आनन्द वर्धन ओझा
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बदलते तेवर 

Akanksha पर Asha Saxena -
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"लिख के जले हैं खत बहुत तेरे जबाब में " 
मिटने लगी हैं हस्तियाँ ,तेरे गुलाब में । 
मुझको दिखा है ईश्क भी ,अपने रुआब में... 
तीखी कलम से पर 

Naveen Mani Tripathi 
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"आज हमारी खिलती बगिया" 

 
गीत-ग़ज़लदोहा-चौपाई,
गूँथ-गूँथ कर हार सजाया।
नवयुग का व्यामोह छोड़कर ,
हमने छन्दों को अपनाया...
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13 टिप्‍पणियां:

  1. सुप्रभात
    सदा की तरह पढ़ने के लिए पर्याप्त सामग्री |
    मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार सर |

    जवाब देंहटाएं
  2. सुंदर चर्चा हमेशा की तरह तरोताजा सूत्रों के साथ । 'उलूक' के सूत्र 'एक पुरानी दीवार के पलस्तर को ढकने वाले हैं पुराने फटे कपड़े के दो टुकड़े कर दो नये करने वाले हैं' को स्थान देने के लिये आभार ।

    जवाब देंहटाएं
  3. सुंदर चर्चा सदा की तरह,मेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद शास्त्री जी।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत बढ़िया चर्चा प्रस्तुति हेतु आभार!

    जवाब देंहटाएं
  5. लाजवाब चर्चा ... कितने ही नए सूत्र ...

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत बहुत शुक्रिया आप सभी का!

    जवाब देंहटाएं
  7. वही ख़ुदगर्ज़
    वही ख़ुदगर्ज़ जो ठुकरा के मुझको चल दिया था कल
    न जाने क्या क़यामत है के शब भर याद आया है...
    ग़ाफ़िल की अमानत पर
    चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’

    शानदार अशआर

    जवाब देंहटाएं
  8. गीत-ग़ज़ल, दोहा-चौपाई,
    गूँथ-गूँथ कर हार सजाया।
    नवयुग का व्यामोह छोड़कर ,
    हमने छन्दों को अपनाया...
    उच्चारण

    बहुत सुन्दर है।

    जवाब देंहटाएं
  9. गीत-ग़ज़ल, दोहा-चौपाई,
    गूँथ-गूँथ कर हार सजाया।
    नवयुग का व्यामोह छोड़कर ,
    हमने छन्दों को अपनाया...
    उच्चारण

    बहुत सुन्दर है।

    बहुत सुन्दर है।

    भाव भी अर्थ भी और अपने परिवेश के प्रति लगाव और विश्वाश भी।

    जवाब देंहटाएं
  10. सुंदर चर्चा,मेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद शास्त्री जी।

    जवाब देंहटाएं

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