शुक्रवारीय चर्चा में आपका हार्दिक अभिनन्दन है।
स्त्री को देवी समान दर्जा देने वाले भारत देश की महिलाओं ने अपने प्रयासों, अपने कार्यों और अपने लक्ष्यों के बल पर दुनियाभर में सम्मान और वही देवी का दर्जा हासिल किया है। राजनीति, उद्योग, समाजसेवा, खेल या फिर फिल्मों की ही बात क्यों न हो, भारतीय महिलाओं ने हर जगह अपनी मेहनत के बल पर पुरुष प्रधान समाज में अपनी सशक्त दावेदारी प्रस्तुत की है। आज की नारी पुरुषों से किसी मामले में पीछे नहीं है। एक समय था जब नारी को ‘अबला’ कहकर पुकारा जाता था और संन्यासी लोग उसे ‘नर्क का द्वार’ कहकर तथा अभिमानी गृहस्थ पुरुष उसे अपने ‘पैरों की जूती’ कहकर ठुकराया करते थे लेकिन अब समय बदल गया है।आज नारी न तो अबला है और न ही उसे पैरों की जूती कहा जा सकता है। आज की नारी अपने पैरों के ऊपर खड़ी हुई है, स्वावलम्बिनी है। वह किसी भी प्रकार से पुरुष की आश्रित नहीं है। बल्कि कभी परिचारिका बनकर और कभी कार्यक्षेत्र की सहयोगिनी बनकर वह पुरुष वर्ग की मदद ही करती रहती है।
“छीनता हो स्वत्व कोई, और तू त्याग तप से काम ले यह पाप है
पुण्य है विच्छिन कर देना उसे बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ है”
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कविता रावत
गुलाब को कुछ भी नाम दो उससे उतनी ही सुगंध आयेगी।
शक्कर सफेद हो या भूरी उसमें उतनी ही मिठास रहेगी।।
कभी चित्रित फूलों से सुगंध नहीं आती है।
हर चमकदार वस्तु स्वर्ण नहीं होती है।।
आँखों की कोटर में, जब खारे आँसू आते हैं।
अन्तस में उपजी पीड़ा की, पूरी कथा सुनाते हैं।।
धीर-वीर-गम्भीर, इन्हें चतुराई से पी लेते हैं,
राज़ दबाकर सीने में, अपने लब को सी लेते हैं,
पीड़ा को उपहार समझ, चुपचाप पीर सह जाते हैं।
अन्तस में उपजी पीड़ा की, पूरी कथा सुनाते हैं।।
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विजयलक्ष्मी
" मेरे पैर जमी पर ही रहे तो अच्छा है ,
ख्वाब ऊँची उडान पर है आजकल
चूल्हे की आग बस्तियों में जा पंहुची
सामाजिकता ढलान पर है आजकल
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कुलदीप ठाकुर
ठेके पर बिकने वाली,
हर बोतल में,
केवल शराब ही नहीं,
आंसू भी हैं...
उस औरत के आंसू,
जो दिन भर प्रिश्रम करके,
शाम को घर में आकर,
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मृदुला प्रधान
जाड़ों में प्रायः
दिख जाते हैं, वृद्ध-दंपत्ति,
झुकी हुई माँ ,कांपते हुए
पिता.....धूप सेकते हुए.....
कभी 'पार्क'में,कभी
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कुँवर कुसुमेश
लग रहा हुदहुद के तेवर कुछ तो ढीले पड़ गए।
थी अकड़ जिसमें बहुत वो भी लचीले पड़ गए।
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वन्दना गुप्ता
तन के उत्तरी छोरों पर
पछीटती माथे की रेखा को
वो गुनगुना रही है लोकगीत
जी हाँ ....... लोकगीत
दर्द और शोक के कमलों से भरा
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तुम अगर करोगे खिलवाड़ मुझसे तो मैं एक दिन मौत बनकर आऊँगी !
गरीब और अमीर की मुझे नही है पहचान , मैं हर आखँ में आसूं दे जाऊंगी !
जन्नत में भी तबाही और मौत के मंजर हर तरफ नजर आयंगे तुमको !
मैं रक्षक हूँ तुम्हारी , मुझे मत छेड़ो ,अगर छेड़ोगे तो भक्षक बन जाऊगी !!
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रेखा जोशी
रात अँधेरी
आसमान में
आज
तन्हा है चाँद
उसकी
चांदनी बिखर कर
छिटक गई
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कौशल मिश्रा
जापान के टोक्यो शहर के निकट एक कस्बा अपनी खुशहाली के लिए प्रसिद्द था एक बार एक व्यक्ति उस कसबे की खुशहाली का कारण जानने के लिए सुबह -सुबह वहाँ पहुंचा . कस्बे में घुसते ही उसे एक कॉफ़ी -शॉप दिखायी दी। उसने मन ही मन सोचा कि मैं यहाँ बैठ कर चुप -चाप लोगों को देखता हूँ
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अरुण साथी
यह मंजर देखकर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की आदमियता सिसक उठेगी, मेरा भी कलेजा मूंह में आ गया पर बिहार पुलिस ने संवेदनहीनता की प्रकाष्ठा पार कर दी। बुद्धवार की शाम में खबर मिली की शेखपुरा जिले के बरबीघा थाना के कोल्हाड़ाबीघा गांव में नवविवाहिता की हत्या कर शव को गांव में ही जला दिया गया। सूचना पर वहां पहूंचा तो पता चला कि नालन्दा जिले के सरमेरा गांव निवासी अठठारह वर्षिय राजनन्दनी को उसके पति मोहन राम एवं अन्य परिजनों ने हत्या कर दी और गांव के बाहर खेत में शव को जला दिया गया।
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त्याग आवरण लाज का, शील के वसन उतार !
रति मदिरा पी कर चली, लिये वासना-ज्वार !!
घर के बेटे-बेटियाँ, अल्पायु में आज |
ढूँढ रहे हैं भोग सब, दूषित बाल-समाज ||
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सनी चौहान
दोस्तों आज एक छोटी सी पोस्ट की किसी यूटुब की पूरी प्लेलिस्ट को एक साथ कैसे डाउनलोड करें इसका में आपको एक सीधा सा उपाय बता रहा हूँ
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अनीता जी
“कौन यहाँ आंसू पोंछेगा, हर दामन भीगा लगता है” इस जगत से हम उम्मीद रखें कि हमारे दुःख को मिटाएगा तो यह वैसे ही होगा जैसे बालू से तेल निकालना, क्योंकि दुःख जगत ने हमें दिया ही नहीं है यह हमारी ही अज्ञानता से उत्पन्न हुआ है. इसी तरह सुख भी जो बाहर से मिलता हुआ प्रतीत होता है
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भारती दास
युग का मुर्गा बांग दे रहा
जागो युग सेनानी .
नये वेश में करनी है
भारत की अगवानी .
दमकेगा अब गाँव-गाँव में
स्वच्छता भरी जवानी .
लोकेन्द्र सिंह
स्पष्ट सोच, तर्कपूर्ण बात, साफगोई और बेबाकी का अद्भुत समन्वय अभय कुमार दुबे है। जब हम टीवी चैनल्स पर होने वाली लाइव बहस देखते हैं तो चख-चख तौबा-तिल्ला के बीच सार्थक बात और जनमानस से जुड़े सवालों की उम्मीद अभय कुमार दुबे से रहती है। वे इस भरोसे को निभाते भी हैं।
भरे बाज़ार पहेली बूझो
गुम हो गया चिराग का जिन्न
अच्छे दिन अच्छे दिन।
आलू गोभी अकड़ दिखाता
मंडी जाना रास न आता
महंगाई के यह ऐसे दिन
अच्छे दिन अच्छे दिन।
सब को पता होता है
आसान नहीं होता है
खुद ही लिख लेना
खुद को और दे देना
पढ़ने के लिये किसी
फ़िरदौस ख़ान
कई साल पहले हमारे एक शनासा ने दिल्ली का एक क़िस्सा सुनाया था... आज न जाने क्यूं याद आ गया...
एक लड़का था और एक लड़की... लड़का बिहार का रहने वाला था... लड़की झारखंड की थी... दोनों में प्यार था, जैसा बताया गया... हुआ यूं कि एक रोज़ दोनों कहीं से आ रहे थे... लड़का मोटर साइकिल चला रहा था और लड़की उसके पीछे बैठी थी... जिस तरह लड़की ने उस लड़के को अपनी बांहों की गिरफ़्त में लिया हुआ था, उससे साफ़ ज़ाहिर था कि दोनों में मुहब्बत है...
चर्चा को विराम देते हुए विदा चाहूँगा, फिर मिलते हैं अगले शुक्रवार को।
बढ़िया लिंकों की के साथ सुरुचिपूर्ण चर्चा।
जवाब देंहटाएंआपका हृदय से आभार आदरणीय राजेन्द्र कुमार जी।
हमेशा की तरह एक उम्दा खूबसूरत चर्चा । 'उलूक' के सूत्र 'खुद को खुद बहुत साफ नजर आ रहा होता है लिखा फिर भी कुछ नहीं जा रहा होता है' को जगह मिली आभारी हूँ ।
जवाब देंहटाएंखूबसूरत चर्चा.
जवाब देंहटाएंमुझे शामिल करने आभार।
बहुत सुन्दर चर्चा प्रस्तुति में मेरी ब्लॉग पोस्ट शामिल करने हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंआपने बहुत सुन्दर लिँको के साथ चर्चा हैँ। आपका ब्लॉग http://safaraapka.blogspot.in/ पर हैँ। मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
जवाब देंहटाएंसुंदर चर्चा प्रस्तुतिकरण पर बधाई स्वीकारे .....ब्लॉग http://kalamse21.blogspot.in शामिल करने हेतु आभार |
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर चर्चा प्रस्तुति, आभार।
जवाब देंहटाएंआपने बहुत सुन्दर लिँको के साथ चर्चा की हैँ, धन्यबाद।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर चर्चा प्रस्तुति, आभार आदरणीय राजेन्द्र कुमार जी।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लिंकों के साथ बहुत ही सुन्दर चर्चा, आभार।
जवाब देंहटाएंइन सुन्दर चर्चा में मेरी रचना भी शामिल है ,धन्यवाद
जवाब देंहटाएंlinks bahut achche hain ,mujhe bhi liye ,bahut khushi hui.....
जवाब देंहटाएंमितरो !आप को धन तेरस और दीवाली के अन्य पञ्च-पर्व की वधाई ! सुन्दर संयोजन!! मेरी रचना को
जवाब देंहटाएंइसमें सम्मिलित करने हेतु धन्यवाद !