मित्रों।
आदरणीय दिलबाग विर्क जी
हरियाणा चुनाव ड्यूटी में व्यस्त हैं।
इसलिए बृहस्पतिवार की चर्चा में
मेरी पसंद के कुछ लिंक देखिए।
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अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं...
कितना कुछ बदल गया है
पिछले सात सालों में ।
सुबीर संवाद सेवा पर पंकज सुबीर
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"दोहे-अहोई-अष्टमी"
आज अहोई-अष्टमी, दिन है कितना खास।
जिसमें पुत्रों के लिए, होते हैं उपवास।।
दुनिया में दम तोड़ता, मानवता का वेद।
बेटा-बेटी में बहुत, जननी करती भेद।।...
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चला हूँ देर तक
चला हूँ देर तक, यादें बहुत सी छोड़ आया हूँ ।
अनेकों बन्धनों को, राह ही में तोड़ आया हूँ ।। १।।
लगा था, साथ कोई चल रहा है, प्रेम में पाशित ।
अहं की भावना से दूर कोई सहज अनुरागित ।। २।।..
प्रवीण पाण्डेय
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तो कभी चाहत में !!!!!
प्रेम को जब भी देखती हूँ मैं
अपेक्षाओं की आँखों में
रंग सारे बारी-बारी
बिखर जाते हैं
कभी प्रेम माँगता बदले में प्रेम
तो कभी चाहत में बलिदान माँगता
मैं हैरानी के सोपानों को
पार करते हुए
इसकी हर ऊँचाई का
क़द मापती
पर कहाँ संभव था
प्रेम का आँकलन...
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मौसम के रंग
बहुत अजीब होते हैं
पल पल बदलते मौसम के रंग
कभी पलट देते हैं मोड़
देते हैं तैरती नावों के रुख
और कभी अपनी ताकत से
चूर कर देते हैं धरती का घमंड ....
Yashwant Yash
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बुलबुला:
दादी, नानी की कहानी सी,
एक नयी दुनिया बनानी है ......
नीम के पेड़ो में झूले डाल कर
फिर वही लम्बी पेंगे बढ़ानी है...
Vikram Pratap singh:
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बड़ी मुश्किल है बोलो क्या बताएं...
अपनी आवाज़ में एक ग़ज़ल [
"मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन" पर आधारित ]
प्रस्तुत कर रहा हूँ...
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कहकहे भी कमाल करते हैँ
आँसुओं से सवाल करते हैं।
ज़ब रोते हैं तन्हा हमहँसा-
हँसा कर बूरा हाल करते हैं।
कहकहे भी कमाल करते हैँ॥...
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बुलबुला:
दादी, नानी की कहानी सी,
एक नयी दुनिया बनानी है ......
नीम के पेड़ो में झूले डाल कर
फिर वही लम्बी पेंगे बढ़ानी है...
Vikram Pratap singh:
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बड़ी मुश्किल है बोलो क्या बताएं...
अपनी आवाज़ में एक ग़ज़ल [
"मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन" पर आधारित ]
प्रस्तुत कर रहा हूँ...
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कहकहे भी कमाल करते हैँ
आँसुओं से सवाल करते हैं।
ज़ब रोते हैं तन्हा हमहँसा-
हँसा कर बूरा हाल करते हैं।
कहकहे भी कमाल करते हैँ॥...
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न कोई गाँव न कोई ठाँव
न कोई गाँव न कोई ठाँव
फिर भी मुसाफ़िर
चलना है तेरी नियति...
फिर भी मुसाफ़िर
चलना है तेरी नियति...
रंगीन दुशाला...
आह... ऑटम ऑटम ऑटम... आ ही गया आखिर। इस बार थोड़ा देर से आया। सितम्बर से नवम्बर तक होने वाला ऑटम अब अक्टूबर में ठीक से आना शुरू हुआ है. सब छुट्टी के मूड में थे तो उसने भी ले लीं कुछ ज्यादा। अब आया है तो बादल, बरसात को भी ले आया है और तींनो मिलकर छुट्टियों की भरपाई ओवर टाइम करके कर रहे हैं...
"ये काले-कारनामे करने वाले लोग -
तरुण तेज़पाल,लालू यादव,
आसाराम,चौटाला,जयललिता
आदि-आदि जैसे लोग मीडिया के
"रावण " क्यों नहीं बनते ???-
पीताम्बर दत्त शर्मा (लेखक-विचारक-विश्लेषक)
यहाँ मर्ज़ क्या था और मरीज़ कौन ..?
जीजाजी अपने जीवन की आखरी घड़ियाँ गिन रहे थे अस्पताल में, और मंजू दी बैठीं थीं उनके सामने, उनकी आँखों में आँखें डाल कर और पूछ रहीं थीं उनसे, मैंने तो तुमसे माँगा था, हंसी-ख़ुशी का एक छोटा सा घोंसला और तुमने मुझे थमा दिए, बदरंग रंगों में लिथड़े कई अनचाहे रिश्ते...
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निष्कर्ष
याद है मुझे अच्छे से वो जुलाई दो हजार आठ का
छब्बीसवां दिन था और भोपाल से सीधा पहुंचा था
अस्पताल में,
माँ के आप्रेशन का बारहवां दिन था
भाई ने बताया कि
आज सारे दिन बोलती रही है माँ,
बहनों को याद किया और...
आज नासाज़ है तबियत मेरी ..
चले आओ तुम...
आज नासाज़ है तबियत मेरी
चले आओ तुम....
दर्द मर जाएगा
हाथो से ज़रा सहलाओ तुम....
"एहसास की लहरो पर ........"
© परी ऍम 'श्लोक'
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डाली: गुड़िआ एक फरेब की...
चले आओ तुम...
आज नासाज़ है तबियत मेरी
चले आओ तुम....
दर्द मर जाएगा
हाथो से ज़रा सहलाओ तुम....
"एहसास की लहरो पर ........"
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डाली: गुड़िआ एक फरेब की...
न तूं पूरी न मै पूरा
आधी रात का प्यार अधूरा
मॉग कहीं सिन्दूर कहीं
सजती सुहागसेज कहीं...
कलम से.. पर
Sudheer Maurya 'Sudheer'
डार्विन के विकास के सिद्धांत को यों ही मान्यता नहीं मिली है. उसमें तमाम व्यवहारिक व वैज्ञानिक तथ्य हैं. ये प्राणीमात्र, ये समाज, और ये दुनिया पल पल बदलते रहे हैं. मनुष्य बन्दर से आदमी, जंगली से सभ्य मानव होते गए, यद्यपि मूलभूत गुणावगुण साथ चलते रहे हैं. कहानी का नायक श्यामू, जो अब सम्मानीय रिटायर्ड वरिष्ठ नागरिक है, गाजियाबाद में आबाद है...
जाले पर पुरुषोत्तम पाण्डेय
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"ग़ज़लिका-ज़िन्दग़ी में न ज़लज़ले होते"
सबसे मिल कर अगर चले होते
आज इतने न फासले होते
कोई तूफां नहीं कभी आता
ज़िन्दग़ी में न ज़लज़ले होते...
कार्टून को भी चर्चा में सम्मिलित करने के लिए आपका विनम्र आभार.
जवाब देंहटाएंअब्बास अली जी को विनम्र श्रद्धाँजलि । सुंदर गुरुवारीय चर्चा में 'उलूक' के सूत्र 'धीरे से लाईन के अंदर चले जाना बस वहीं का रहता है मौसम आशिकाना' को स्थान देने के लिये आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया चर्चा प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंआभार!
बढ़िया चर्चा प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंआभार!
बहुत ही चुनिंदा लिकों का समायोजन बहुत बहुत आभार !!
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है …
बहुत सुन्दर चर्चा
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद सर!
जवाब देंहटाएंसादर
सुन्दर चर्चा। स्थान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद शास्त्री जी।
जवाब देंहटाएंDHANYWAAD MERI RACHNA SHAMIL KARNE HETU !! SANKLAN TO SHANDAAR HOTA HI HAI AAPKA !! WAAH !!
जवाब देंहटाएंसुन्दर चर्चा .. आभार
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर चर्चा ।
जवाब देंहटाएंमैँ रोज पढ़ता हुँ आपकी चर्चा बहुत बढिया हैँ।
धन्यवाद
मेरी पोस्ट मैँ इस शुनशन जह पर अकैलीपर आपका स्वागत हैँ।
बहुत ही अच्छी चर्चा रही आज भी, आपका आभार !
जवाब देंहटाएंसराहनीय संग्रह....आभार
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को स्थान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद...
Sabhi links sunder ...sunder charcha rahi aaj ki !!
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को स्थान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद..
meri Rachna ko sthan dene ke liye sukriya.
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