मित्रों।
शनिवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
बिश्व मजदूर दिवस
Madan Mohan Saxena
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चन्द माहिया :
क़िस्त 20
:1:
तुम सच से डरते हो
क्या है मजबूरी
दम सच का भरते हो?
:2:
मालूम तो था मंज़िल
राहें भी मालूम
क्यों दिल को लगा मुश्किल
:3:..
तुम सच से डरते हो
क्या है मजबूरी
दम सच का भरते हो?
:2:
मालूम तो था मंज़िल
राहें भी मालूम
क्यों दिल को लगा मुश्किल
:3:..
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मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना
....मित्र के काम की सराहना की, तो मित्र ने नम्रतापूर्वक उस अधिकारी की ओर इंगित करके कहा, "मैंने तो इनकी absence में इस तरह कार्य किया, जैसे भरत ने राम की चरण-पादुका को रख कर अयोध्या का राजकाज चलाया!" इस पर अधिकारी महोदय बिगड़ गये...
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मेरे मजदूर दोस्त
....चौखट खिड़की का काम बैजनाथ शर्मा कर रहे थे। उनकी उम्र मुझ से कोई दस पंद्रह साल अधिक रही होगी। दोनों ही बिहार के थे। मेरे जिले के पास के ही। समस्तीपुर से कट कर बना जिला रोसड़ा। गंगा प्रसाद बहुत मेहनती था। इंजीनियर जैसा दिमाग था उसका। आर्किटेक्ट को भी समझा देता था कई बार...
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जीवा आयुर्वेद का ऑनलाइन आयुर्वेद केंद्र :
जीवा टेली मेडिसिन सेंटर
ज्ञान दर्पणपर Ratan singh shekhawat
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मजदूर ...
...धुंआ उगलती चिमनियों के
नुक्कड़ वाले खोखे पे
रात उसकी लाश मिली
उसकी जागीर में थी
टूटी कलम
क्रांतिकारियों के कुछ पुराने चित्र...
नुक्कड़ वाले खोखे पे
रात उसकी लाश मिली
उसकी जागीर में थी
टूटी कलम
क्रांतिकारियों के कुछ पुराने चित्र...
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यूँ मिली ख़ुशी...!
कल किसी ने कहा... ख़ुशी लिखो... ख़ुशी जियो... ख़ुशी तलाशो... खुश रहो... इन आशीषों को बटोर रहे थे और अनुशील के सैकड़ों ड्राफ्ट्स में कुछ एक खोयी कवितायेँ ढूंढ रहे थे कि यूँ मिली ख़ुशी... एक पुराने ड्राफ्ट से... तो इसे ही सहेजा जाए... आज... आज एक नया दिन है... हर रोज़ एक नया दिन होता है...!
बिना किसी आहट
बिना किसी शोर के
आती हैं खुशियाँ...
अनुशील पर अनुपमा पाठक
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स्त्री अडिग ही रही सदैव...
लेकिन
असहनीय है धरा के लिए
स्त्री का
यूँ मुस्कुरा कर
सहन करना...
असहनीय है धरा के लिए
स्त्री का
यूँ मुस्कुरा कर
सहन करना...
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गीत
"सहमा सा मजदूर-किसान,
अचरज में है हिन्दुस्तान"
माली लूट रहे हैं बगिया को बन करके सरकारी,
आलू-दाल-भात महँगा है, महँगी हैं तरकारी,
जीने से मरना महँगा है, आफत में इन्सान!
अचरज में है हिन्दुस्तान!
अचरज में है हिन्दुस्तान!!
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