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शनिवार, दिसंबर 19, 2015

"सुबह का इंतज़ार" (चर्चा अंक-2195)

मित्रों!
शनिवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

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गीत "श्वाँसों की सरगम"

कल-कल, छल-छल करती गंगा,
मस्त चाल से बहती है। 
श्वाँसों की सरगम की धारा, 
यही कहानी कहती है।। 

हो जाता निष्प्राण कलेवर, 
जब धड़कन थम जाती हैं। 
सड़ जाता जलधाम सरोवर, 
जब लहरें थक जाती हैं। 
चरैवेति के बीज मन्त्र को, 
पुस्तक-पोथी कहती है... 
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बिहार में पूर्ण शराब बंदी या छलावा 

बिहार सरकार के मुखिया नीतीश कुमार ने अपने चुनावी अभियान में जब शराब बिक्री पर महिलाओं का प्रतिरोध देखा तो शराब बंदी का भरोसा दिया और नयी सरकार के गठन के बाद बिहार में 1 अप्रैल से पूर्ण शराब बंदी की घोषणा कर दी। इस घोषणा के बाद नीतीश कुमार की चौतरफा सराहना हुयी। बाद में जैसे जैसे दिन बीतते गए वैसे वैसे 5000 करोड़ के राजस्व का हिल्ला-हवाला दिया जाने लगा। अब धीरे धीरे यह बात सामने आ रही है बिहार सरकार पूर्ण शराब बंदी नहीं लागु करेगी। इसकी जगह आंशिक शराब बंदी नीति लागु होगी। उत्पाद विभाग इसके लिए नीति बनाने में जुट गयी है... 
चौथाखंभा पर ARUN SATHI 
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मूल मन्त्र 

फूल पर बैठा भ्रमर के लिए चित्र परिणाम
मन रे  तू है कितना भोला 
खुद में ही खोया रहता 
जग  में क्या कुछ हो रहा
उससे  कोई ना नाता रखता 
भ्रमर पुष्प पर मंडराता
गीत प्रेम के गाता
हर बार नया पुष्प होता 
दुनिया की रीत निभाता... 
Akanksha पर Asha Saxena 
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वो छत थी... 
चारदिवारी थी उसका आधार 
मगर वो हर संकुचन से विरत थी... 
हम उसे एकटक देखते रहे... 
वो देखती रही आकाश...  
अनुशील पर अनुपमा पाठक 
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कुहरे में— 

Fulbagiya पर डा0 हेमंत कुमार 
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नए साल में 

गज़ल संध्या पर कल्पना रामानी  
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जाने कहाँ ? ........  

सीमा सदा 

गुम जाने की उसकी बुरी आदत थी, 
या फिर मेरे रखने का सलीका ही सही न था, 
चश्‍मा दूर का अक्‍सर पास की 
चीजें पढ़ते वक्‍़त नज़र से हटा देती थी 
एक पल की देरी बिना 
वह हो जाता था मेरी नज़रों से ओझल... 
कविता मंच पर yashoda Agrawal 
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पापी पेट की खातिर 

हाड गला देने वाली सर्दी में ,जब हम गर्म कपड़ों में भी रहे थे ठिठुर
देखा जो नज़ारा ,हड्डियाँ भी हो गयीं सुन्न,मानवीयता होती देखी निष्ठुर
चार अधनंगे बालक मात्र कुछ मछलियों के लिए जाल डाले थे एक गंदेपोखर में
कुछ बालक उस सर्दी में दूंढ़ रहे थे सिंघाड़े की बेल से कुछ सिंघाड़े उस पोखर में... 
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के अच्छे दिन भी आएँगे  
जो फोड़े भार इक ऐसा चना अब हम उगाएँगे 
तमाशा जो नहीं अब तक हुआ हम कर दिखाएँगे 
चलो अच्छा हुआ के आपने वादा न फ़र्माया 
नहीं हम सोचते रहते के अच्छे दिन भी आएँगे 
चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ 
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 जब भी मैं हरप्पा, सिन्धु/सरस्वती सभ्यता के विवरण पढ़ता हूँ | उस सभ्यता की रहन-सहन, विकासात्मक विवरण, प्राप्त वर्तन, आभूषण, नगरों के स्थापत्य पर विचार करता हूँ तो मुझे लगता है कि यह सब तो भारत में आज भी हैं| बचपन में हम भी मिट्टी –पत्थर के वर्तन प्रयोग में लाते थे, मिट्टी की गाड़ी, खेल खिलौने | कुल्ल्हड़, सकोरे तो अभी तक प्रयोग में हैं,  दीप दिवाली के, लक्ष्मी-गणेश मिट्टी के आदि |  देश में उत्तर से दक्षिण तक, पूर्व से पश्चिम तक आचरण, व्यवहार, रीति-रिवाज़, रहन-सहन, रंग-रूप, वेद-पुराण-शास्त्र, देवी-देवता, पूजा-अर्चना, राम, कृष्ण, शिव, देवी, दुर्गा आदि के एकत्व पर गहराई से विचार करता हूँ तो मुझे संदेह होता है कि हम सब भारतीय सुर हैं या असुर, आर्य हैं या अनार्य... 

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