मित्रों
रविवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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दोहे
"हुए आज मजबूर"
कैसा है ये फैसला, जनता है बदहाल।
रोगी को औषध नहीं, दस्तक देता काल।।
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सन्नाटा बाजार में, समय हुआ विकराल।
नोट जेब में हैं नहीं, कौन खरीदे माल।।
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फाँस गले में फँस गयी, शासक है लाचार।
नये-नये कानून नित, लाती है सरकार...
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अनास्था के दौर में आस्था का पुनर्पाठ
( कवि राजकिशोर राजन के कृतित्व पर केन्द्रित ) -
उमाशंकर सिंह परमार
[ प्रखर युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार तीसरी शीघ्र प्रकाश्य आलोचना -पुस्तक "समय के बीजशब्द" का यह एक अध्याय है ] लोकधर्मी कविता का अन्तिम निकष लोक है क्योंकि रचनाकार की रचनात्मक शक्ति का सघन सम्बन्ध लोक के जीवन संघर्षों और मूल्यों से होता है । यह कहना गलत नहीं होगा कि लोक भूमि मे सामान्य जन की प्रधानता होती है वह शक्ति सत्ता और सम्पत्ति से प्रभावित होते हुए भी भागीदारी से वंचित होता है । यह वंचना गरीबी , अशिक्षा , त्रासदी, रोगशोक, आफत का कारण विनिर्मित करती है...
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जो छली है वही बली है
सभा-गोष्टियों में बचपन से सुनते आ रहा हूं कि छत्तीसगढ़िया सदियों-सदियों से छले गए, हमें फलाने ने छला, हमें ढेकाने ने छला, ब्लाँ-ब्लाँ-ब्लाँ-ब्लाँ। इसे सुनते-सुनते अब ऐसी मनःस्थिति बन चुकी है कि छत्तीसगढ़िया छलाने के लिए ही पैदा हुए हैं। नपुंसकीय इतिहास से सरलग हम पसरा बगराये बैठे हैं कि आवो हमें छलो। हम सीधे हैं, सरल हैं, हम निष्कपट हैं, हम निच्छल हैं। ये सभी आलंकारिक उपमाएं छल शास्त्र के मोहन मंत्र हैं। हम इसी में मोहा जाते हैं और फिर हम पर वशीकरण का प्रयोग होता हैं...
संजीव तिवारी
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बैल की जोड़ी
नंद किशोर हटवाल की यह कहानी परिकथा के ताजे अंक में प्रकाशित है। दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों की खेती बाड़ी आज भी पारम्परिक तरह से हल बैल पर आधारित है। हटवाल की चिन्ताओं में शामिल उसके चित्र उन पशुओं के प्रति विनम्र अभिवादन के रूप में आते हैं। कहानी पर पाठकों की राय मिले तो आगे बहुत सी बातें हो सकती हैं। इस उम्मीद के साथ ही कहानी यहां प्रस्तुत है। *नंद किशोर हटवाल* इंदरू कल जाने की तैयारी में है...
लिखो यहां वहां पर विजय गौड़
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उथल-पुथल मची हुई है मन में
बहुत जरूरी पोस्ट,बहुत उथल-पुथल मची हुई है मन में - ..बहुत समझ तो नहीं है मुझे, पर नोटबंदी का विरोध भी बेमानी लगता है। जिस तरह के हालात आजकल सब तरफ हम देख रहे हैं. उसे देखते हुए हमें वर्तमान में रहने की आदत बना लेनी चाहिए। .... पैसे वाला सदा ही पैसा बटोरने में लगा रहेगा ,मेहनत कर कमाने वाला सदा मेहनत करके ही खायेगा। ... इतना बड़ा फैसला लिया है तो बिना सोचे-समझे तो नहीं ही लिया होगा। ...आखिर पद की भी कोई गरिमा होती है। ...कई कार्य आप पद पर रहते हुए ही कर सकते हैं। .... हाँ जिन मुश्किलों की कल्पना उन्होंने की होंगी ,मुश्किलें उससे कई गुना ज्यादा और भयावह तरीके से सामने आई। .....
मेरे मन की पर
अर्चना चावजी Archana Chaoji
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सिर्फ पैसा चल रहा है ...
कल ऐसा न हो
जैसा कल रहा है ....
थम गई है रफ्तार ए जिंदगी
सिर्फ अब पैसा चल रहा है -
किसी का सूरज निकल रहा
किसी का सूरज ढल रहा है...
udaya veer singh
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हज़ार के नोट
मुझे नहीं लगना लाइनों में,
नहीं बदलवाने हज़ार के नोट,
हालाँकि कुछ पुराने नोट
मेरे पास महफ़ूज़ रखे हैं.
कर दिए होंगे उन्होंने बंद हज़ार के नोट,
पर जो मेरे पास रखे हैं,
अनमोल हैं.
इनमें किसी की उँगलियों की छुअन है,
किसी की झलक है इनमें...
कविताएँ पर Onkar
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ये सोनम तो बेवफा नहीं है,
चाहे तो अपनी आंखों से देख लो।
क्या करिएगा, आपको ये पता चल सके कि आप इंटरनेट के जिस वायरल मैसेज वाले मायावी दुनिया में रहते हैं उससे आगे भी दुनिया है, इस तरह की हेडिंग लगानी पड़ गई। हालांकि ये भी लगे हाथ साफ कर देना जरूरी है कि इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि आगे से ऐसा नहीं होगा। धोखा आपको कभी भी किसी भी रूप में दिया जा सकता है। फिलहाल अब नोट वाली सोनम गुप्ता की याद को अपने दिमाग से निकाल दीजिए और सोनम वांगचुक के बारे में जानिए...
अग्निवार्ता पर
Ashish Tiwari
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Meena sharma:
मेघ-राग
पुरवैय्या मंद-मंद, फूल रहा निशिगंध,
चहूँ दिशा उड़े सुगंध,
कण-कण महकाए...
शीतल बहती बयार,
वसुधा की सुन पुकार,
मिलन चले हो तैयार,
श्या... मेघ-राग पुरवैय्या मंद-मंद...
आपका ब्लॉग पर
M. Rangraj Iyengar
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सुन्दर रविवारीय अंक ।
जवाब देंहटाएंसभी लिंक बढ़िया है। पोस्ट चयन में विभिन्नता दिख रही है।
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