मित्रों!
रविवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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ख्वाहिशों का पंछी
बरसों से निर्विकार, निर्निमेष,मौन
अपने पिंजरे की चारदीवारियों में कैद,
बेखबर रहा, वो परिंदा
अपने नीड़ में मशगूल भूल चुका था
उसके पास उड़ने को सुंदर पंख भी है...
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एक और क्षितिज .......
चंचलिका शर्मा
क्षितिज के उस पार भी है
एक और क्षितिज
चल मन चलें उस पार ..
मेरी धरोहर पर
yashoda Agrawal
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तुझको कुछ याद है क्या ??
तेरे मन में अब भी कुछ बात है क्या तू मुझको देखती है तो मुँह फेर लेती है, तेरी पास मेरी दी हुई अब भी कुछ सौगात है क्या, तू तो कहती है सबसे की तूने मुझको भुला दिया है, जो थे आँखों में उन आंसुओं को जला दिया है, तू कहती है कि , तू अब पहचानती नही मुझको, सब कहते है कि तू अब जानती नही मुझको, पर एक अजनबी से नजरें फेर लेना समझ नही आता है,..
परम्परा पर Vineet Mishra
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हरियल देहरी
बरसते सावन में पीछे छूटे मायके लो याद करते हुए ये विचार भी आया - * गाँव -घर तो पुरुषों के भी छूटते हैं कि वे भी निकल पड़ते हैं ज़रूरतें जुटाने अनजान दिशा में -अनभिलाषित दशा में अनचाही दूरियों को जीने और अकेलेपन का गरल पीने | बदलती रुत और बरसती बूंदों में वे भी तो याद करते होंगें माँ-बाबा और अपना आँगन अपनी हरियल देहरी से परे देश-विदेश में अपनों का सुख बटोरने की जद्दोज़हद में जुटे पिता, भाई या पति का मन कितना उदास और शुष्क होता होगा ?
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शुभ प्रभात....
जवाब देंहटाएंक्या ग़ज़ब की पसंद है आपकी
आभार...
सादर
सुन्दर सूत्र संयोजन...मेरे ब्लॉग को स्थान देने के लिए आभार !
जवाब देंहटाएंसुन्दर लिंक और सुन्दर चर्चा हेतु बधाई
जवाब देंहटाएंबढ़िया चर्चा. मेरी कविता शामिल करने के लिए शुक्रिया
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंsundar prastuti ..
जवाब देंहटाएंसुन्दर और सार्थक चर्चा। मेरी रचना को स्थान देने पर दिल से शुक्ररिया ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर संकलन। बधाई और धन्यवाद।
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