सादर अभिवादन।
सोमवारीय प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।
शीर्षक व काव्यांश आदरणीय संदीप कुमार शर्मा जी की रचना 'समय, तपिश और यह दिवस' से
मंथन कीजिएगा कि हम मौजूदा किस समय में हैं और बीता समय कैसा था, बहुत अंतर है दोनों में, साथ ही यह भी चिंतन कीजिएगा कि यह विश्व पर्यावरण दिवस का जो दिन है क्या वह अब भी उचित है या इस तिथि में बदलाव होना चाहिए। मैं केवल इसलिए ऐसा सोचता हूं क्योंकि इस दिन हजारों लाखों पौधे रोपे जाते हैं और तापमान भी इसी समय पर बढ़ता है, पौधे रोपे जाने चाहिए लेकिन समय और परिस्थितियां अनुकूल हैं या नहीं यह भी तो देखा जाना चाहिए, हम हर वर्ष लाखों पौधे रोपते हैं लेकिन क्या यह भी बारीकी से देखा और परखा गया कि उनमें से कितने पौधे धरा हैं, वृक्ष बनने की ओर अग्रसर हैं और कितने हैं जो गर्मी की भेंट चढ़कर झुलस गए।
आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-
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दोहे "खास आज भी खास"
ज्यादा मीठे माल से, हो जाता मधुमेह।
कभी-कभी तो चाटिए, कुछ तीखा अवलेह।।
हमने दुनिया को दिया, कविताओं का ढंग।
किन्तु विदेशों का चढ़ा, आज हमीं पर रंग।।
हरे और बूढ़े
पेड़ की तलाश में
विकलांग पेड़ों के पास से गुजरते रहे
सोचा हुआ कहां
पूरा हो पाता है
सच तो यह है कि
हमने
घर के भीतर से
निकलने और लौटने का रास्ता
अपनों को ही काट कर बनाया है----
अपना तो हर काम निराला होता है।
जब आँखें हों बन्द उजाला होता है।।
घर खाली है इतने भ्रम में मत रहना,
प्रायः मेन गेट पर ताला होता है।।
औषध गुण भरपूर है,भोजन का भंडार।
देख भाल उत्तम करें,करिये प्यार दुलार।।
देव रूप में पूजिये,वृक्ष धरा की शान।
संतति जैसे मानिये ,करें मान सम्मान।।
सरकारें लाचार हैं ,आप लीजिए भार।
वृक्षारोपण सब करें,ये जीवन आधार।।
नयना निहारते है प्यासा उड़े पपीहा।
छाए घना अँधेरा बहती पवन सुहानी॥
शीतल समीर छेड़े संगीत जब धरा पर।
घिरती घटा घनेरी अंतस समेट पानी॥
नयना निहारते है प्यासा उड़े पपीहा।
छाए घना अँधेरा बहती पवन सुहानी॥
शीतल समीर छेड़े संगीत जब धरा पर।
घिरती घटा घनेरी अंतस समेट पानी॥
कर गया वो आज फिर साँसों का सौदा ।
धधकते दिन आग सी रातों का सौदा ॥
बाग जो हमने लगाया था कभी,
आम,पीपल,नीम,वट,बाँसों का सौदा ॥
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चलो रोपते हैं एक पौधा
चलो इस उम्मीद में
रोपते हैं एक पौधा,
कि एक दिन वह
दुआ बन कर फलेगा ।
जो बरसों बाद घना होगा,
मज़बूत तना होगा ।
फिर खुद का ना दुश्मन होता
नाम तेरा जो कभी भज लेता
फिर खाली न यह बर्तन होता
हमें समझना होगा कि जब सहज परिस्थितियों में हम प्रकृति को बेहतर बना सकते हैं, पौधे रोप सकते हैं, उन्हें वृक्ष बना सकते हैं तो इतनी विपरीत और झुलसती हुई परिस्थितियों में हम क्यों इसे जरुरी मानते हैं...। बेहतर तो होगा हम अपनी आदत बदल लें और हमें हरेक अनुकूल दिन पर्यावरण दिवस की तरह ही श्रेष्ठ महसूस हो...और हम इस एक दिन कर्म को हरेक दिन में अधिक आसानी से कर पाएंगे।
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आज पर्यावरण दिवस है, हवा दूषित है, कहीं बारिश होती है तो होती ही चली जाती है, कहीं मानसून झलक दिखा कर चला जाता है। कहीं बाढ़ से लोग परेशान हैं तो कहीं सूखे से। वैज्ञानिक कहते हैं, ओज़ोन लेयर में छेद हो गया है, सूरज की हानिकारक किरणें भी धरती पर आ रही हैं। धरती का हाल तो और भी दयनीय है, गंदगी, रासायनिक खाद, कीटनाशकों ने भूमि की गुणवत्ता समाप्त कर दी है।
आज का सफ़र यहीं तक
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
सभी प्रस्तुतियां शानदार।
जवाब देंहटाएंपर्यावरण पर सार्थक चिंतन, बढ़िया चर्चा!!
जवाब देंहटाएंशानदार प्रस्तुति!!!
जवाब देंहटाएंविविधता लिए सुंदर सराहनीय अंक । रचनाओं के सूत्रो पर गई । एक से बढ़कर एक संदेशपरक रचनाएँ।
जवाब देंहटाएंमेरे सृजन को स्थान देने के लिए शुक्रिया प्रिय अनीता जी । सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।
पर्यावरण दिवस पर विचारणीय रचनाओं के सूत्रों से सजी चर्चा, आभार!
जवाब देंहटाएंशानदार प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआपका आभार @अनीता सैनी 'दीप्ति' जी
पर्यावरण की चिंता से भरपूर सार्थक लिंक।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंशानदार प्रस्तुति!!!
जवाब देंहटाएंपर्यावरण पर लिखी रचनाओं का सुंदर संकलन और संयोजन
जवाब देंहटाएंसभी रचनाकारों को बधाई
मुझे सम्मलित करने का आभार
सादर
बढिया सकलन
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति। मेरी रचना को मंच पर स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार अनीता जी।
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