मित्रों!
बुधवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
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सरस्वती-वंदना हो मेरा चिंतन प्रखर , बढ़े निरंतर ज्ञान।
हे माँ वीणावादिनी , दो ऐसा वरदान।।
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मातु शारदे आपका , रहे कंठ में वास।
वाणी में मेरी सदा , घुलती रहे मिठास।। मेरा सृजन
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गीत "पहले छाया बौर निम्बौरी अब आयीं है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
पहले छाया बौर, निम्बौरी अब आयीं है नीम पर।
शाखाओं पर गुच्छे बनकर, अब छायीं हैं नीम पर।।
मेरे पुश्तैनी आँगन में खड़ा हुआ ये पेड़ पुराना,
शीतल छाया देने वाला, लगता हमको बहुत सुहाना,
झूला डाल बालकों ने भी पेंग बढ़ाई नीम पर।
उच्चारण
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व्यथित ह्रदय की वेदना .....!!
व्यथित हृदय की वेदना का
कोई तो पारावार हो
ला सके जो स्वप्न वापस
कोई तो आसार हो anupama's sukrity --
छंद विजात में परमपिता जिसे संसार ने जाना |
जिसे संसार ने माना ||
सभी में जो समाया है |
न नश्वर है न काया है ||१
मधुर गुँजन
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अंजनी के लाला
अंजनी के लाला कमाल
हवा में उड़ जाएँ ।
कभी भूमि पर, कभी बिरछ पर
कभी नभ के उस पार, नजर हैं आएँ ॥
हमने कहा कभी मेरे घर अइयो ।
संग म अपनी सेना लइयो ॥
लड्डू, हलवा, खीर औ पूड़ी,
जो कछु खाओ बनाएँ ॥
जिज्ञासा के गीत
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आज नंगी लाश भी नचवा रहे हैं लोग !
लक्ष्मण मस्तुरिया का पहला
हिन्दी कविता संग्रह : सिर्फ़ सत्य के लिए
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(आलेख - स्वराज करुण)
छत्तीसगढ़ी भाषा के लोकप्रिय जन कवि लक्ष्मण मस्तुरिया आज अगर हमारे बीच होते तो 73 साल के हो चुके होते , लेकिन उनका कवि हृदय उस वक्त भी अपनी रचनाओं में युवा दिलों की धड़कनों को स्वर दे रहा होता। बिलासपुर जिले के ग्राम मस्तूरी में 7 जून 1949 को जन्मे लक्ष्मण मस्तुरिया की ज़िंदगी का सफ़र राजधानी रायपुर में 3 नवम्बर 2018 को अचानक हमेशा के लिए थम गया । उनके लाखों चाहने वाले श्रोता और प्रशंसक स्तब्ध रह गए । लेकिन लगता नहीं कि वो अब हमारे बीच नहीं हैं ,क्योंकि एलबमों में संरक्षित उनके सदाबहार गानों की अनुगूंज , जनता के होठों पर गाहेबगाहे उन गीतों की गुनगुनाहट और किताबों में शामिल उनकी कविताएँ हमें एहसास दिलाती हैं कि वे आज भी यहीं कहीं हमारे आस- पास ही मौज़ूद हैं।
मेरे दिल की बात
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पेड़ रहेंगे हमेशा
कल हो सकता है,
मैं रहूँ ना रहूँ,
पर हमेशा रहेंगे
तुम्हारी स्मृति में
वे पेड़-पौधे हरे-भरे
जो हमने साथ लगाए..
नमस्ते namaste
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प्यार एक मीठा एहसास प्रेम टूट कर बिखरने की एक वह प्रक्रिया जो सिर्फ चांदनी की रिमझिम में मद्दम मद्धम सा दिल के आँगन में तारों की तरह टूटता रहता है!
कुछ मेरी कलम से kuch meri kalam se
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गुज़रे ज़माने के पॉप-संगीत का पुनरागमन ‘अब्बा वॉयेज़’
करीब 41 साल पहले एबीबीए यानी ‘एबा’ या ‘अब्बा’ संगीत-मंडली ने अपना आखिरी कंसर्ट मिलकर संचालित किया था। वह भी श्रोताओं के लिए लाइव शो नहीं था, बल्कि स्वीडिश टीवी का एक शो था। अब 27 मई को इस स्वीडिश-मंडली के लंदन में नए शो ‘अब्बा वॉयेज़’ ने तहलका मचाया है। यह तहलका इस संगीत-मंडली ने नहीं, बल्कि तकनीकी-कर्णधारों ने मचाया है। जिज्ञासा
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मन की हारे हार है, मन के जीते जीत!
कल शाम ५ बजे बेटे के घर से अपने घर जाने के लिए निकलने के पहले खिड़की से झांक कर देखा तो हर तरफ एकदम अँधेरा एवं सड़कों पर सन्नाटा दिखा. सर्दियों की शाम वो भी शनिवार को..यही माहौल होता है यहाँ कनाडा में. अपनी कार घर के पास के स्टेशन पर छोड़ आया था अतः बेटे ने बस स्टेशन तक पहुँचा दिया. बाकी का सफर बस एवं ट्रेन से करना था.
मैं जब घर से निकला था तो टीवी पर कोने में तापमान दिखा रहा था -१२ डिग्री सेन्सियस. उस हिसाब से एक मोटा जैकेट पहन कर निकल लिया था.
उड़न तश्तरी ....
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अरबों से मुक़ाबला करने के लिए रवीश कुमार ने की अक्षय कुमार से अपील, लिखा पत्र
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एक दिन ..
एक दिन..
अकेली मैं उदास
बुलाने बैठी
आसमान में उड़ते हुए
चिड़ियों को
चिड़ियों ने कहा-
'रात होनेवाली है
घर जाने की
जल्दी है'.
सूरज को गोद में लिए
पश्चिम की लाली से
बोली मैं
कुछ देर के लिए
मेरे पास
आओ तो
All India Bloggers' Association ऑल इंडिया ब्लॉगर्स एसोसियेशन
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नीति के दोहे मुक्तक
दुख
घरनि मरै बुढ़ापे में, धन हो भ्राता हाथ।
भोजन होय पराधीन, दुखड़ा केवल साथ।।1।।
आभूषण
गुण आभूषण रूप का,कुल का मानौ शील।
विद्या भूषण सिद्धि का, धन होय क्रियाशील।।2।।
कुल
ऊँचा कुल किस काम का, जिसके विद्या नाहि।
विद्या जिसके पास हो, कुल मत पूंछो ताहि।।3।।
--अशर्फी लाल मिश्र, अकबरपुर कानपुर।
काव्य दर्पण
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एक पुराना किस्सा पुराने ज़माने की बात है, वैशाख की दोपहरी में ब्रज क्षेत्र के एक गाँव के ज़मींदार की हवेली से एक मोहतरमा की विदाई हो रही थी. बड़ा मार्मिक दृश्य था. मोहतरमा छोटे-बड़े सभी से गले मिल-मिल कर रो रही थीं. रोने और गले लगने का यह सिलसिला यूँ ही अनंत काल तक चलता रहता पर सावन में भैया को भेज कर उनको फिर से बुलाने के वादे पर इस ड्रामे का सुखद अंत हुआ. पीली गोटेदार साड़ी और गहनों से सजी, लम्बा घूंघट काढ़े हुए वो मोहतरमा, गाडीवान के साथ बैलगाड़ी में सवार हुईं. वाह ! क्या शानदार बैलगाड़ी थी और कितने सजीले बैल थे.
एक बांका घुड़सवार थोड़ी दूर से यह दृश्य देख रहा था. वो उस पीली गोटेदार साड़ी में लिपटी, घूंघट वाली मोहतरमा की बस एक झलक पाना चाहता था पर मोहतरमा ने बैलगाड़ी में सवार होने तक अपना घूंघट खोला ही नहीं.
तिरछी नज़र गोपेश मोहन जैसवाल
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छप्पन इंची गुब्बारा
2014 में गुब्बारे का साइज 56 इंच था। जनभावनाओं के सहारे उड़ा तो उड़ता गया। भूल गया कि हर उड़ान की सीमा है। जमीन और आसमान के तापमान और दशाओं में फर्क होता है। उड़ने की स्वतंत्रता में संविधान का बंधन है। अब संविधान के अनुच्छेदों में छेद ढूँढ़ कर बढ़ना सरल रहा तो बढ़ लिये। लेकिन धर्म व जाति ऐसा भावनात्मक बिन्दु है जिस पर भारत जैसे बहुलतावादी देश में खड़े होकर कला करना बहुत मुश्किल है।
किसानों का विरोध करते करते इस गुब्बारे में हवा भरनेवालों ने सोये हुए खालिस्तानियों को भी तमाशा देखने के लिए बुला लिया। मैं इसे आन्तरिक कूटनीतिक असफलता मानता हूँ।
मेरी दुनिया विमल कुमार शुक्ला
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रोटी और कविता गुम हो गई अनगिनत कविताएँ
रोटी की खोज में
कही सडकें कही बियाबान
पार करते हुएं
मुझे धरती भी छोटी लगी कावेरी
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राष्ट्रपति चुनाव 2022 के संभावित समीकरण
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तुमको पाती प्रिये....
तुमको पाती प्रिये, मैं कहाँ से लिखूँ ?
किसी ने मेरी, लेखनी छीन ली।
मेघ सुधियों के बेरुत बरसने लगे,
ताल नयनों का बरबस छ्लकने लगा !
भीगने से डरी, मेरी निंदिया परी,
हर निशा, जागरण का महोत्सव हुआ।
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अपनापन
कोई था जो अपनापन जताता भी था
जिसे करीब पाकर मैं मुस्कुराता भी था
आज दुश्मनी की हद तक खफा है, जो
दौड़कर मेरी बाहों में सिमट जाता भी था
~satishrohatgi
स्वरांजलि
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अंत तक कातिल का पता नहीं लगने देती है 'गोल्डन गर्ल'
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कारवां ग़ुलाम रूहों का- अनमोल दुबे
आज के टेंशन या अवसाद से भरे समय में भी पुरानी बातों को याद कर चेहरा खिल उठता है। अगर किसी फ़िल्म या किताब में हम आज भी कॉलेज की धमाचौकड़ी..ऊधम मचाते यारी-दोस्ती के दृश्यों को देखते हैं। या इसी पढ़ने या देखने की प्रक्रिया के दौरान हम, मासूमियत भरे झिझक..सकुचाहट से लैस उन रोमानी पलों से गुज़रते हैं। जिनसे कभी हम खुद भी गुज़र चुके हैं। तो नॉस्टेल्जिया की राह पर चलते हुए बरबस ही हमारे चेहरे पर एक मुस्कुराहट तो आज भी तैर ही जाती है।
आज प्रेम भरी बातें इसलिए दोस्तों..कि आज मैं महज़ तीन कहानियों के एक ऐसे संग्रह की बात करने जा रहा हूँ जो आपको फिर से उन्हीं सुहाने पलों में ले जाने के लिए अपनी तरफ़ से पूरी तैयारी किए बैठे हैं। इस कहानी संग्रह का नाम 'ग़ुलाम रूहों का कारवां ' है और इसे लिखा है अनमोल दुबे ने।
लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं। हँसते रहो
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आज के लिए बस इतना ही...!
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बहुत बहुत धन्यवाद इसमें शामिल करने के लिए
जवाब देंहटाएंसुंदर चर्चा। सभी लिंक्स शानदार।
जवाब देंहटाएंउम्दा चर्चा।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया चर्चा |सादर धन्यवाद शास्त्री जी मेरी रचना को यहाँ स्थान दिया 🙏🙏!!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह चर्चा मंच की बेहतरीन प्रस्तुति। साधुवाद । मेरे आलेख को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार।
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह चर्चा मंच की बेहतरीन प्रस्तुति। साधुवाद । मेरे आलेख को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार।
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अत्यंत सुंदर रचनाओं से सजे इस अंक में मेरी रचना को लेने हेतु सादर आभार आदरणीय शास्त्रीजी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंविविधता से पूर्ण चर्चा. इससे जोड़ने के लिए हार्दिक धन्यवाद,शास्त्रीजी. अधिकतर रचनाएँ पढ़ीं. अच्छी लगीं. कुछ शेष हैं.
जवाब देंहटाएंसुंदर सराहनीय अंक।
जवाब देंहटाएंसदैव की भाँति बेहतरीन प्रस्तुति, सराहनीय, मेरा ब्लॉग शामिल करने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंहमारे काव्य दर्पण के दोहे कॉपी पेस्ट कर इस चर्चा मंच में सम्मिलित किए गए लेकिन चर्चा संयोजक ने हमें सूचित नहीं किया यह कार्य अच्छा नहीं रहा।
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