नमस्कार , हाज़िर हूँ एक ब्रेक के बाद ….सज गया है काव्य मंच और मंच पर सारी कविताएँ अपनी पात्रता निभा रही हैं …देखना यह है कि आपके मन के अनुरूप कौन सी रचना आपको भाती है …आज विशेष चर्चा में आपको मिलवा रही हूँ दो शख्सियत से ….उनकी रचनाओं में से चुनी हुई रचनाएँ आपको भी पसंद आएँगी ..ऐसी आशा करती हूँ …ब्लॉग पर पहुँचने के लिए आप चित्र पर भी क्लिक कर सकते हैं …चलिए बढते हैं फिर मंच की ओर … |
![]() मत रोको उन्हें उड़ने दो सिखाओ उन्हें कि खिंच सके खुद अपनी लक्ष्मण रेखाएं ... क्यूंकि मुश्किल होता है लांघना खुद अपनी खिंची लक्ष्मण रेखाओं का इस कविता में एक लडकी के जीवन में कब कब और कैसे बदलाव आता है …बहुत सटीक विश्लेषण किया है .. अब चुप रह कर अपनी औकात में ..दिनोदिन निस्पृह होती जाती वह इस रचना में माँ के माध्यम से घर की हर स्त्री के लिए कहा है कि घर की महिलाएं ही रिश्तों को बनाना और निबाहना जानती हैं ..और मजबूत होती जाती वह खुश अपनी औकात में रहने लगी है वह क्यूंकि रूबरू है जीवन के अंतिम सत्य से वह बस माँ ही जानती है .याद आते हैं मुझेपीतल के वे छोटे-बड़े टोपिये माँ दूध उबाल देती थी जिनमे दूध कभी फटता नहीं था ... माँ उसमे कलाई करवाती थी बस माँ ही जानती है ... कलई चढ़ाना ... बर्तनों पर भी रिश्तों पर भी ... कैसे विष पनपता है नारी हृदय में ज़रा उसको भी जानते चलिए … विषकन्याइस पहले घूँट से ही मगर जो बच जाती हैं और सीख जाती है आंसू पीकर मुस्कुराना उपेक्षा सहकर खिलखिलाना ************* और अंततः होती हैं अभिशापित पायें जिसे चाहे नहीं .... चाहे जिसे पाए नहीं .... आक्रान्ताओं ... इन पर हंसो मत इनसे लड़ो मत इनसे डरो ..... ये करने वाली है तुम्हारे नपुंसक दंभ को खंडित तुम्हारी सभ्यता को लज्जित |
![]() अरुण चंद्र राय से बहुत से पाठक परिचित हैं …इनकी हर रचना मन में कहीं गहरे उतरती है …जब से मैंने इनकी रचनाओं को पढ़ना प्रारंभ किया तब से अब तक नियमित पाठिका हूँ …साधारण सी दिखने वाली चीज़ों में यह गहरे भाव भर कर कविता कह जाते हैं .. कपड़े सुखाती औरतें …..कील पर टंगी बाबूजी की कमीज़.. इसके उदाहरण हैं …हर कविता एक नया बिम्ब लिए होती है और अद्भुत चित्र प्रस्तुत करती है ….आप भी देखें कुछ रचनाएँ .. आग आग जिजीविषा है जिज्ञासा है जूनून है जरुरी है.. क्योंकि तूलिका और तालिका आपके लिए व्यक्ति भी ए़क वस्तु ही है तूलिका जहाँ भरती है सपनों में रंग तालिका करता है सच्चे झूठे आंकड़ो का भव्य प्रदर्शन |
और अब चर्चा सप्ताह की विशेष रचनाओं की …जिनमें आपको कुछ नए लोग और कुछ प्रतिष्ठित लोग मिलेंगे …उम्मीद है कि मेरा यह प्रयास आपको अच्छी रचनाओं तक ले जाने में सहायक होगा … |
तुम्हें देख मधुपों का गुंजनतुम्हें देख बज उठे बांसुरी, और गूँजता है इकताराफुलवारी में तुम्हें देख कर होता मधुपों का गुंजन हुई भोर आरुणी तुम्हारे चेहरे से पा कर अरुणाई अधरों की खिलखिलाहटों से खिली धूप ने रंगी दुपहरी संध्या हुई सुरमई छूकर नयनों की कजरारी रेखा रंगत पा चिकुरों से रंगत हुई निशा की कुछ औ; गहरी |
![]() शोभना चौरे जी अपनी कविता "स्त्रियाँ " के माध्यम से बता रही हैं कि स्त्री द्वारा किये गए हर कार्य में सौंदर्य विद्यमान होता है …जब वो खाना बनाती हैं तो लगता है कि पेटिंग कर रही हैं ..किस तरह समय की धुरी बनी होती हैं …आप भी इस बेहतरीन रचना का आनन्द लें .. राजनीती की बिसात पर भले ही बिछाई गई हो कभी ? आज राजनीती की किताब है स्त्रियाँ इन पंक्तियों में शायद द्यूत क्रीडा में द्रोपदी को दांव पर लगने का प्रसंग छिपा है |
साँझ भयी फिर जल गयी बातीसाँझ भयी फिर जल गयी बाती !जल-जल मदिर-मदिर, झील-मिल, कोई अतीत का गीत सुनाती ! साँझ भयी फिर जल गयी बाती !! | ![]() तो कुछ और कहूँ. अपने दिल की उदासी को छुपा लूँ तो कुछ और कहूँ अपने लफ़्ज़ों से जज्बातों को बहला लूँ तो कुछ और कहूँ. अपनी साँसों से कुछ बेचैनियों को हटा लूँ तो कुछ और कहूँ धूप तीखी है, जिंदगी को छाँव की याद दिला दूँ तो कुछ और कहूँ |
जीवन की आपा - धापी में हर इंसान अपनी रोज़ी रोटी कमाने में लगा रहता है .इसी बात को इंगित करते हुए ललित शर्मा जी कह रहे हैं कि दो रोटियाँ कितना दौड़ाती हैं?हाड़-तोड़ भाग-दौड़फ़िर दिमागी दौड़ भाग जीवन में विश्राम नहीं दो रोटियाँ कितना दौड़ाती हैं? |
![]() डा० अजमल खान की एक तरही मुशायरे में शामिल गज़ल पढ़िए धनक बिखेर रहे अब्र ..धनक बिखेर रहे अब्र क्या फ़ज़ाऐं हैं फलक पे झूम रहीं सांबली घटाऐं हैं. गुलो बहार बगीचे हुये दिवाने से अजीब कैफ मे डूबी हुई हवाऐं हैं . | तुम्हारी खामोशीतुम हो मैं हूँ और एक खामोशी तुम कुछ कहते क्यूँ नहीं तुम्हारे एक-एक शब्द मेरे वजूद का अहसास कराते हैं |
![]() प्रदूषण के कितने प्रकाररोड जाम है;दुपहिया तिपहिया बहुपहिया वाहन फेंके धुंआ, करें हैरान, कर 'ध्वनि-संकेत' का शोर बहरे हो गए कान, हो गई नजर कमजोर धूल स्नान कर कर के हो जाती जनता धुलिया बदल जाता है गाँव, शहर संग जनता का भी हुलिया जय जोहार........... |
बहार लिखने का मन था आजदम तोड़ते रिश्ते बहुत देर डगमगाते हैंइस कोशिश में सहारा मिले तो टांग दें ज़ज्बात उस पर दूर अहम् की चादर ओढ़े उम्मीद हाथ बांध मुस्कुराती है | ![]() अहसासइतने सालों बाद मिले तुम खामोशी से सुनते हुए बरसों पहले की तरह आज भी देखती रही शाम के साथ गहराता तुम्हारी आंखों का रंग आज ज्यादा लगा रैग्युलर कौफी का भी फोम . |
![]() 1. कोई तकरार लिक्खे है कोई इनकार लिखता है हमारा मन बड़ा पागल हमेशा प्यार लिखता है 2. किसी को धन नहीं मिलता किसी को तन नहीं मिलता लुटाओ धन मिलेगा तन मगर फिर मन नहीं मिलता 3. शख्स वो सचमुच बहुत धनवान है पास जिसके सत्य है, ईमान है प्रेम से तो पेश आना सीख ले चार दिन का तू अरे मेहमान है 4. मेरी जुबां पर सच भर आया कुछ हाथों में पत्थर आया मैंने फूल बढ़ाया हंस कर मगर उधर से खंजर आया |
![]() हर पल में दीखे मनमोहनगीला स्पर्श घनश्याम का स्नेह निर्झर हरिनाम का चहुँओर छाया उसका नर्तन मुरली आलोक छू पाये मन वह श्याम सलौना मन भाये हर रोम कथा उसकी गाये | ![]() अपनी बातसपना : सांप बचपन की रातें घने जंगल सी सपना - सांप सा नींद डसी जाती रही बार-बार काटा रातों का जंगल खोजा सपना मिला जहाँ - पत्थरों से मारा घायल सपना खो जाता रहा हर बार |
![]() |
दीपशिखा वर्मा लायी हैं गरमा गर्म मुलायम नज़्म !इनकी नज्में आपस में बातें करती हैं और इंतज़ार गरमा गर्म नर्म नयी नज़्म का … मेरी नज़्म , गीत , ग़ज़ल , कविताएँ कभी कभी गोले में बैठ कर बतियाती हैं - खोल खोल के अपने जेवर बिछा देती हैं एक दुसरे के सामने | ज़िंदगी में हर इंसान की न जाने कितनी चाहतें होती हैं …उसी पर सुमन सिन्हा जी ने अपनी लेखनी चलाई है … चाहिए, बस चाहिएक्या चाहिए इन्हें नाम - शोहरत धन - दौलत मिल जाये तो? फिर और चाहिए, और, और... न मिले तो, कैसे भी चाहिए... |
![]() तुम तो बसे परदेशमैंने देखा है - तुम्हारा गाँव उसी वैमनस्य से लड़ता -झगड़ता , फसलें घृणा की काटता ...नस्लें उपेक्षा की बांटता |
![]() क्षमा सिमटे लम्हे मेरे मन के पर कह रही हैं कि --- न हीर हूँ,न हूर हूँ..न हीर हूँ,न हूर हूँ , न नूर की कोई बूँद हूँ, ना किसी चमन की दिलकश बहार हूँ... खिज़ा में बिछड़ी एक डाल की पत्ती हूँ... | ![]() मुश्किल एक ही मुश्किल थी कि उसकी कोई हद नहीं थी चाह थी मुद्दत से मगर वो 'जिद' नहीं थी # देर तक बैठा था तन्हाई की फांक लिये इश्क रूहानी था पर वो अब तक मुर्शिद नहीं थी # |
![]() शेखर सुमन जी प्यार में दे रहे हैं प्यार का तोहफाआज के मुबारक दिनमैं तुझे एक तोहफा देना चाहता हूँ | ऐसा तोहफा जो सबसे निराला हो | पाकर जिसे तेरा मन भी मतवाला हो | वो तोहफा मेरे प्यार का उपहार भी हो | |
![]() बीज कभी नहीं मरते हैं..कभी मन सेरोपे गए कभी अनजाने में गिर के ज़मीन पर दब गए ज़मीन में जैसे थोपे गए | एक गौरैया नन्ही सीएक गौरैया नन्ही सी नीड़ से निकली पहली बार नील गगन को छूने की चाह ह्रदय में लेकर आज फुदक रही है डाली-डाली पंख फैलाए पहली बार |
![]() अंजामअब जीने का रोजाना अन्दाज बदलना पडता है भीगें पर वाले परीन्दे को परवाज़ बदलना पडता है जवाब उनसे मांगू क्या अपनी हसरत का रिश्तों का लिहाज करके सवाल बदलना पडता है | ![]() तीन छोटी कवितायेँरेडियो पर लव गुरु और -- टीवी पर बाबा अपनी -अपनी दुकान खोलकर कान और नाक पकड़ कर निकल रहे हैं लोगों की हवा . |
'न' होने का होना.....'कुछ नहीं' थे ये तसल्ली फिर भी है,'शून्य' से संसार की रचना हुई. कहकशां दर कहकशां खुलते गए, क्या अजब ये देखिये घटना हुई. |
यमुना तुम ऐसे ही बहते रहनाअब तो बता दोफैल कर अपने ही दामन में भींगोते हुए आंचल को बहते हुए धारा प्रवाह जी कैसा मचलता है | राणा प्रताप सिंह अपने ब्लॉग ब्रह्माण्ड पर एक गज़ल कह रहे हैं तारीकियों में चमके हैं जो माहताब सेसाकी बना दे जाम जरा बेहिसाब से मेरा ना कुछ भी होगा जरा सी शराब से शब बीतने से पहले क़यामत ही आ गई दीदार ना जरा सा मिला उस नकाब से |
वृद्धग्राम पर महेंद्र जी की कविता प्रस्तुत की गयी है ..जिनकी उम्र ७५ वर्ष की है ..उनके कवि मन को पढ़िए जो उन्होंने आज अपनी स्थिति के बारे में रचा है .. मौत की शक्ल को ढूंढ रहा हूं![]() मौत की शक्ल को ढूंढ रहा हूं, मिलती ही नहीं, क्यों गुम है, वह खड़ी चौखट पर, यह समझता कोई नहीं, सरक-सरक कर चलने वाला, जीवन पागल बिल्कुल नहीं, |
![]() डा० अभिज्ञात नए चिट्ठाकार हैं ….आप भी उनके कवित्व से रु - ब- रु होइए … ख़्वाब देखे कोई औरमेरे साथ ही ख़त्म नहीं हो जायेगा सबका संसार मेरी यात्राओं से ख़त्म नहीं हो जाना है सबका सफ़र अगर अधूरी है मेरी कामनाएं तो हो सकता है तुममें हो जायें पूरी |
![]() फिर याद तेरी किरकिरी बन बिंदास चुभती रही...जोड़ कर टुकड़े कई उस आईने के आज तक अक्स ले हाथों में मैं ख़ुद से दरारें भरती रही हो सामने ताबूत जैसे, ऐसे पड़ी थी ज़िन्दगी जिस्म शोर करता रहा और रूह उतरती रही |
![]() देश और समाज की विसंगतियों पर डा० रूपचन्द्र शास्त्री जी व्यथित और क्षुब्ध हो कर आज कह रहे हैं "स्वतन्त्रता का नारा है बेकार"जिस उपवन में पढ़े-लिखे हों रोजी को लाचार। उस कानन में स्वतन्त्रता का नारा है बेकार।। जिनके बंगलों के ऊपर, बेखौफ ध्वजा लहराती, रैन-दिवस चरणों को जिनके, निर्धन सुता दबाती, जिस आँगन में खुलकर होता सत्ता का व्यापार। उस कानन में स्वतन्त्रता का नारा है बेकार। |
चकमित पत्नी!!मंत्र कुछ सिद्ध जाप लें तो चलें तिलक माथे पे थाप लें तो चलें सुनते हैं बस्ती फिर जली है कोई चलो हम आग ताप लें तो चलें |
आशा करती हूँ कि आज यहाँ प्रस्तुत किये गए चिट्ठे आपको पसंद आयेंगे …आपके सुझावों और प्रतिक्रिया का इंतज़ार है …फिर मिलते हैं नए काव्य कलश को लेकर …आगले मंगलवार …तब तक के लिए …………. नमस्कार |