नमस्कार , मंगलवार की चर्चा पर आप सब का स्वागत है … एशियाई खेलों में लड़कियां अपना जलवा दिखा रही हैं …हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं ….और बढ़ना भी चाहिए …लेकिन फिर भी माना जा रहा है कि दिल्ली लडकियों के लिए सुरक्षित नहीं है ….यह एक विचार करने वाला विषय है …जिस देश की लड़कियां देश का गौरव बढा रही हों उसी देश की राजधानी में ऐसी घटनाएँ होना चिन्ता का विषय तो है ही .. खैर …चलते हैं आज की चर्चा पर जहाँ आपको हर भावों से गुंथी हुई रचनाएँ पढने को मिलेंगी ….कोई प्रेम भाव से परिपूर्ण है तो कोई दर्द से लबरेज़…कहीं अध्यात्म है तो कहीं जीवन के प्रति फलसफा …और आप सामजिक और राजनैतिक विसंगतियों की ओर इशारा करती और कटाक्ष करती रचनाएँ भी पढ़ सकते हैं …..तो लीजिए हाज़िर है आज की चर्चा -------------------- |
आज आपको सबसे पहले ले चल रही हूँ कुसुम की यात्रा ब्लॉग पर …कुसुम जी की यात्रा ब्लॉग जगत में २००८ से शुरू हुई …आपने अपनी पहली कविता १३ दिसंबर २००८ को ब्लॉग में प्रकाशित की … कैसे भूलूं .. तुमको याद करुँ मैं इतना, ख़ुद को ही भूल जाऊँ। मैं तो भूली ही कब तुमको, और न किया कब याद। और इसके बाद कलम के साथ इनकी यात्रा निरंतर चल रही है …इस ब्लॉग पर इनके कुछ लेख हैं तो कुछ संस्मरण भी …साथ ही कविताओं का एक खजाना है ….हर कविता जैसे मन को बाँध लेती है .. जो बीत गयी उसे क्यों भूलूं.. जो बीत गई उसे क्यों भूलूँ ? वही तो मेरी धरोहर है , जिस पर मैं नाज़ करूँ इतना । करवाया साक्षात्कार मुझे , जीवन की हर सच्चाई से । पग पग मेरे संग चला , और किया आसान डगर। बोनसाई पेड़ों की व्यथा को भी अपने शब्दों में कुछ इस तरह ढाला है .. वामन वृक्ष करे पुकार , झेल रहा मनुज की मार । वरना मैं भी तो सक्षम , रहता वन मे स्वछंद । ईश्वर में भी अगाध श्रद्धा है … मैं कैसे करूँ आराधना , जीवन में ऐसे क्षण भी आते हैं जब इंसान जीवन और मृत्यु के बारे में सोचता है .. कुसुम जी कहती हैं कैसे मैं ध्यान लगाऊँ । द्वार तिहारे आकर मैया , मैं कैसे शीश झुकाऊँ । मन में मेरे पाप का डेरा , मैं कैसे उसे निकालूं । न मैं जानूं आरती बंधन , मैं कैसे तुम्हें सुनाऊँ । जन्म मरण अज्ञात क्षितिज है .. जन्म मरण अज्ञात क्षितिज , जिसे समझ सका न कोई । न इसका कोई मानदंड , और जोड़ न है इसका दूजा । कभी लगे यह चमत्कार सा , लगे कभी मृगमरीचिका । कभी तो लागे दूभर जीवन , कभी सात जन्म लागे कम । आज इनके ब्लॉग से इतना ही ….बहुत कुछ है वहाँ पढने के लिए ….यहाँ पर दी सारी रचनाएँ २००८-२००९ की हैं … फिलहाल इनकी अद्यतन पोस्ट है ..गिले शिकवे सपनों में आकर रुला दें……… |
राकेश खंडेलवाल जी एक जाने माने गीतकार हैं …आज आपको उनके गीतों की एक झलक दिखा रही हूँ …इन्होने अपना ब्लॉग ५ अगस्त २००५ में शुरू किया था ..तब से निरंतर अपने गीतों से गीत कलश भर रहे हैं … एक दीपक वही जो कि जलते हुए मेरे गीतों में करता रहा रोशनी एक चन्दा वही, रात के खेत में बीज बो कर उगाता रहा चाँदनी एक पुरबा वही, मुस्कुराते हुए जो कि फूलों का श्रन्गार करती रही एक बुलबुल वही डाल पर बैठ जो सरगमों में नये राग भरती रही… है सब कुछ वही मन का आवारा वनपाखी अब गीत नहीं गा पाता है कुछ रंग नहीं भर पाता है कोरे खाकों में चित्रकार तूलिका कोशिशें करती है पर विवरण न पाती उभार खूँटियां पकड़ ढीली करतीं रह रह सलवएं पड़ा करतीं यूँ कैनवास यह जीवन का फिर से अपूर्ण रह जाता है अतिक्रमण बादलों का हुआ इस तरह ये अम्बर पर घिरी घटाओं में घुलते यादों के साये चाँदनी की डगर पर कुहासे मिले रंग ऊषा ने आ जो गगन में भरे वे धुंआसे, धुंआसे धुंआसे मिले ऐसे में अब गीत प्रणय के कोई गाये तो क्या गाये टूटी हुई शपथ रह रह कर कड़क रही बिजली सी तड़पे मन के श्याम क्षितिज पर खींचे सुलग रही गहरी रेखायें भीगी हुई हवा के तीखे तीर चुभें आ कर सीने पर आलिंगन के घावों की फिर से रह रह कर याद दिलायें कैसे गीत प्रणय के गायें ज़िन्दगी प्रश्न करती रही नित्य ही ढूँढ़ते हम रहे हल कोई मिल सके हर कदम पर छलाबे रहे साथ में रश्मि कोई नहीं साथ जो चल सके कब कहाँ किसलिये और क्यों, प्रश्न के चिन्ह आकर खड़े हो गये सामने नयनों के गमलों में आशा बोती तो है फूल निशा दिन लेकिन विधना की कूची से पंखुड़ियां छितरा जाती हैं पुन: प्राथमिकता पाती हैं आवश्यकता फुलवारी की और प्यास फिर रह जाती है बिना बुझी नन्ही क्यारी की धड़कन से सिंचित बीजों का रुक जाता है पुन: अंकुरण एक बार फिर, राख निगल लेती अंगड़ाई चिंगारी की |
वक़्त का चेहरा – जैसे कोई नज़्म, जो जैसा पढ़ ले उसके लिए वैसा भूत भविष्य और वर्तमान जिंदगी की सच्चाई है पर टिकता कुछ भी नहीं सब बहता चला जाता है समय की धार में सुख-दुःख, प्यार-घृणा यहाँ तक कि जीवन भी… शेष कुछ भी नहीं रहता ऊंचाइयों तक उड़ने के लिए परिंदा होना ही कोई शर्त तो नहीं सपनों का आकाश, और कल्पनाओं के पंख कुछ कम तो नहीं गला सकती है नफरत की बर्फ़ के पहाड़ प्यार की जरा सी ऊष्मा **** सोना मत, यहाँ तो लोग चुरा लेते हैं सपने भी ! **** टूट जाता कांच सा, यह नेह का बंधन गर तुम न आते, लौट कर, लेने समर्पण हृदय की माटी, अभी थी बहुत नम सच, बहुत गहरे उभरते टूटने के क्षण अनकहा मौन के आगोश में डूबा हुआ दर्द, यूँ तो तरल था फिर भला क्यूँ |
और अब सप्ताह से जुडी कुछ रचनाएँ … अजय कुमार झा की बहुत संवेदनशील रचना ----माँ तेरे जाने के बाद मां तेरे जाने के बाद , मुझे "मां "कहना भी , क्यों अजीब लगता है ? जैसे ही, करते हैं कोशिश , ये होंठ , एक कतरा आसूं का , बैठा आखों के करीब लगता है ॥ एम० वर्मा जी का मन क्षुब्ध है सरकारी तंत्र से ….दिल्ली में इमारत गिरने से जो जान माल की हानि हुई है उसी पर उनकी संवेदनाएं हैं .. यह मकानजो भरभराकर ढह गया पलांश में ही न जाने कितनी दास्तान कह गया वंदना गुप्ता भारतीय नारी के बारे में स्वयं को उसी रूप में आरोपित कर रही हैं … वो ही पुरातन भारतीय नारी हूँ चाहे शोषित करे कोई चाहे उपेक्षित भी होती हूँ मगर मन के धरातल पर डटकर खडी रहती हूँ संस्कारों की वेणी में जकड़ी मन से तो मैं आज भी वही पुरातन भारतीय नारी हूँ | प्रतिभा सक्सेना जी बहुत सशक्त रचना लायी हैं …सायुज्य लौट जाएँगे सभी आरोप , मुझको छू न पा , उस छोर मँडराते हुए . तुम निरे आवेश के पशु तप्त भाषा घुट तुम्हीं में , बर्फ़ बन घुल दे विफलता बोध. विनोद कुमार पांडे जी की एक व्यंग कविता पढ़िए ..चमचों का जलवा जगह-जगह सरकारी चमचे पब्लिक की लाचारी चमचे मंत्री जी को भी पसंद है पढ़े-लिखे अधिकारी चमचे शहद घुली सी मीठी बोली लगते हैं मनुहारी चमचे शुष्क तपते रेगिस्तान के अनंत अपरिमित विस्तार में ना जाने क्यों मुझे अब भी कहीं न कहीं एक नन्हे से नखलिस्तान के मिल जाने की आस है शरद कोकास जी प्रेम के बारे में कहते हैं कि -यह इंसान की ही फितरत है कि वह हर दुनियावी और दुनिया से बाहर की चीज़ की अपने अनुसार परिभाषा गढ़ लेता है । प्रेम के बारे में भी उसका यही सोचना है । फैज़ कहते हैं " मेरे महबूब मुझसे पहली सी मोहब्बत न मांग, और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा । " लेकिन इंसान की विवशता यह है कि वह इन दुखों से भी लड़ता है और मोहब्बत भी करता है । उनके काव्य संग्रह से ली गई कविता पढ़िए झील की ज़ुबान ऊग आई है झील ने मनाही दी है अपने पास बैठने की झील के मन में है ढेर सारी नफरत उन कंकरों के प्रति जो हलचल पैदा करते हैं उसकी ज़ाती ज़िन्दगी में झील की आँखें होती तो देखती शायद मेरे हाथों में कलम है कंकर नहीं. श्याम कोरी “ उदय “ जी पूछ रहे हैं कि--- अरे कोई तो बताए , यह कैसा हिन्दुस्तान है ? देश में विकास के नाम पे कौन-कौन से खेल हो रहे हैं देश कंगाल, और नेता-अफसर मालामाल हो रहे हैं अरे कोई तो बताये ये कैसा हिन्दुस्तान है सहरा में कोई फूल खिला कर तो देखिये, दुश्मन से कभी हाथ मिला कर तो देखिये । काँधा लगा के रस्म अदा कर लिए बहुत, अब अर्थियों का बोझ उठा कर तो देखिये। डा० नूतन नीति अमृत रस से कर रही हैं ………….एक दरख्वास्त मुझे डर नहीं कब पैरों तले धरती खिसक दलदल में मुझको फंसा देगी | मुझे खौफ नहीं कौनसा लम्हा मुड़ के मुझे मौत की नींद सुला देगा | सुभाष नीरव जी की कविता है ………परिंदे ... परिन्दे मनुष्य नहीं होते। धरती और आकाश दोनों से रिश्ता रखते हैं परिन्दे। उनकी उड़ान में है अनन्त व्योम धरती का कोई टुकड़ा वर्जित नहीं होता परिन्दों के लिए। योगेश शर्मा जी सलाह दे रहे हैं ……..दर्द बहने दो .... दर्द ज़माने को दिखने में कितने माहिर होते हैं कभी होंठों से झर जाते हैं कभी आँख से ज़ाहिर होते हैं रचना दीक्षित बता रही हैं कि कैसी होती है ---------तपिश जब भी महसूस करती हूँ, सूरज की अत्यधिक तपिश. जाने क्यूँ मुझे लगता है, मेरा बचपन लौट आया है. सोचती हूँ, चुरा लूँ इसकी कुछ तपिश. अनुपमा पाठक अहंकार दूर करने की सलाह देते हुए कह रही हैं कि " मेरे होने न होने से क्या अंतर है पड़नेवाला! वैसे ही तो होता रहेगा बारी बारी से अँधेरा उजाला! डा० रूपचन्द्र शास्त्री जी की बहुत सुन्दर रचना ----- वेदना की मेढ़ को पहचानते हैं। हम विरह में गीत गाना जानते हैं।। दुःख से नाता बहुत गहरा रहा, मीत इनको हम स्वयं का मानते हैं। हम विरह में गीत गाना जानते हैं।। |
और अब कुछ अन्य लिंक्स --- अश्वनी कुमार राय की -- एक कविता----अंतर्द्वंद ,रहता हूँ मैं,अनजान जगह पर ,ऐसा लगता है जैसे,कोई पेड़ उखाड कर,उगा दिया हो,एक अजनबी और ,अनजान सी जगह पर | विश्व बंधु की रचना …काल कोठरी….स्कूल यूनिफॉर्म में ,अच्छा लगता है बच्चा,बच्चे को अच्छा नहीं लगता ,स्कूल यूनिफॉर्म वाटर बॉटल, बैग ...स्कूल बस में सफर करता बच्चा ,सोचता है ,बगीचों, फूलों और चिड़ियों के बारे में…. नीरज बसलियाल की कुछ त्रिवेणियाँ .…..मेरे आँगन में एक बूढा दरख़्त था, उसकी शाखों पे बैठ के गुज़रा मेरा बचपन, पोते उस डाइनिंग टेबल पे खाना गिराते हैं अभी| फुर्सत के कलम पर ..."तुम " कितने दिनों के बाद मिली हो,क्या अब भी तुम वैसी ही हो?,अजीब चेहरों से उलझे हुए,सवालों के सायें से लिपटे हुए,अनगिनत नजरों को तुम,अपनीसी लगती थी,क्या अब भी तुम वैसी ही हो? उदय वीर सिंह जी की बेटी ही संसार---- चल रहा निर्देश ,नीति प्रवचन , मा-पिता श्री , के समक्ष , गंभीर ,वातावरण ,घोर चिंता , का विषय , पुत्र -हीन होना / समाज का प्रतिनिधि ,मुखरित --धारा -प्रवाह - --पुत्र -रत्न ही वांछित ! कुलदीपक होता है /कन्या चिराग नहीं बनती |
आज बस इतना ही , आशा है आज की चर्चा आपको उपयोगी लगी होगी ….बाकी इसकी सार्थकता पाठकों के हाथ है ….आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों का इंतज़ार है …..फिर मिलेंगे ..मंगलवार को नए लिंक्स के साथ इसी जगह - इसी समय …नमस्कार ----- संगीता स्वरुप |
बहुत सुंदर चर्चा। विभिन्न रंगों को समेटे हुए। फ़ुरसत से पढूंगा। एक-एक कर।
जवाब देंहटाएंआभार आपका कि आपने हमारे ब्लॉग को चर्चा के क़ाबिल समझा।
वो नही सरनाम जो बदनाम ना हो!
जवाब देंहटाएंकाहे का शायर अगर उपनाम ना हो!
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सुन्दर, सरस, सतरंगी और शानदार चर्चा के लिए धन्यवाद!
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मेरें गीत को चर्चा में सम्मिलित किया आभारी हूँ!
सभी लिंक्स बहुत मनोहारी लग रहे हैं संगीताजी ! एक एक कर सबको पढने की अभिलाषा है ! आपने मुझ जैसी नगण्य रचनाकार को भी याद रखा इसके लिये अत्यंत आभारी हूँ ! शानदार चर्चा के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंसंगीता जी चर्चा मंच जैसे प्रतिष्ठित ब्लॉग पर मेरी रचनाओं को स्थान देने के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा संग्रह है, इतने सारे रचनाकारों को एक ही स्थान पर समेट कर आपने मुझ जैसे नवोदित रचनाकारों को वरिष्ठ रचनाकारों से परिचित होने का जो सुअवसर प्रदान किया है उसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद.
सादर
मंजु मिश्रा
सुंदर चर्चा ,आभार
जवाब देंहटाएंसंगीता जी,
जवाब देंहटाएंकवियों की बैठक में आने में बड़ा डर लगता है| कारण, कविता कभी समझ ही नहीं आई| हिंदी फिल्मों के गाने, बचपन में पढ़ी गयी कवितायेँ और गुलज़ार की नज़्मों के अलावा कहीं और नज़र नहीं उठाई|
बहुत बहुत धन्यवाद आपने मेरी कुछ त्रिवेणियों को यहाँ स्थान दिया| लेकिन मैं शर्मसार भी हो रहा हूँ कि मैं कोई ऐसा भी नहीं लिखता जिसकी चर्चा होनी चाहिए| सुखद आश्चर्य...
सुन्दर मनोहारी चर्चा!!!
जवाब देंहटाएंहमें भी अपनी चर्चा में स्थान दिया , आभार!
will go through the links in evening after my SAS classes!
regards,
बहुत सुंदर चर्चा.... सतरंगी लिंक्स....धन्यवाद
जवाब देंहटाएंकितनी पुष्प-यात्राओं के बाद एक बूँद मधु की प्राप्ति होती है ,आपने तो यहाँ गागरें भर रखी हैं - मेरी भी कविता चुनी ,आभारी हूँ !
जवाब देंहटाएंसुन्दर लिंक से सजी अप्रतिम चर्चा .
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह खूबसूरत चर्चा ...!
जवाब देंहटाएंपूरी पोस्ट पढने में समय लगेगा ...
आभार !
बहुत ही सुन्दर लिंक्स लगाये हैं …………काफ़ी पसन्द आये और कुछ पर हो आई हूँ ……………सार्थक और सुन्दर चर्चा।
जवाब देंहटाएंअनगिनत रंगों की किरणों से आलोकित चर्चा मंच एक दीप शिखा की भांति पाठकों के मन को आलोकित कर रहा है!
जवाब देंहटाएंमेरी ग़ज़ल को शामिल करने के लिए आभार !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
बहुत अच्छे लिंक्स मिले हैं ... अच्छी चर्चा ...
जवाब देंहटाएंखूबसूरत गुलदस्ता।
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति में सौंदर्य की झंकार है।
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति में सौंदर्य की झंकार है।
जवाब देंहटाएंविभिन्न रंगों से रंगी हुई चर्चा .काफी सारे लिंक्स तो देख चुके हैं ,पर काफी सारे देखने बाकी हैं.जाते हैं अब
जवाब देंहटाएंसगीता जी.. चर्चा बहुत ही उम्दा है.. एकल भी और विविध भी..सभी रंगों से बनी एक सुन्दर चर्चा..
जवाब देंहटाएंआपका धन्यवाद मंच में आपने मेरी रचना को भी स्थान दिया.. शुभकामनाएं
संगीता जी, बेहद खूबसूरत ढंग से आज आपने चर्चामंच को सजाया है..एक से बढ़ कर एक बढ़िया लिंक्स मिलें जिसमें राकेश जी के ब्लॉग का और गीतों के तो कहने ही क्या....इस सुंदर चर्चामंच के लिए आपको बहुत बहुत बधाई..
जवाब देंहटाएंसंगीता जी..इतने महान प्रभावशाली कवियों और लेखकों के साथ साथ मुझे भी इस चर्चा का एक हिस्सा बनाया आपने आपका बहुत बहुत शुक्रिया...धन्यवाद
7/10
जवाब देंहटाएंअत्यंत आकर्षक, सुव्यवस्थित, खुबसूरत 'बुके' की मानिंद चिटठा चर्चा. काफी मेहनत दिखाई दे रही है और लिंक्स के चयन भी सुरुचिपूर्ण हैं.
आपकी चर्चा का रंग ही कुछ अलग सा होता है. सम्पूर्ण चर्चा यात्रा में आपके कवित्व हृदय की छाप रहती है
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर चर्चा .. सफल चर्चा
अनेक कविताओं को पढ़ा इस चर्चा के माध्यम से
खूबसूरत इन्द्रधनुषी रंगों रूपी लिंक लिए हुए एक सुसज्जित चर्चा मंच पेश किया आपने जो बरबस ही आकर्षित करता है .
जवाब देंहटाएंसंगीताजी !
जवाब देंहटाएंचर्चा बहुत ही उम्दा है..
हमेशा की तरह..
चटपटी चर्चा, बेहतरीन प्रस्तुतीकरण. मेरी कविता को सम्मानित करने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंसच पूछो तो मुझे बड़ा लाजवाब लगा आप का ये चर्चा मंच. एक ही स्थान पर इतनी सारी रचनाएँ पढ़ने को मिल जाएँ तो और क्या चाहिए एक अच्छे पाठक को ! मेरा तो यह पहला पहला अनुभव था जो बेहद सुखद रहा. अश्विनी रॉय
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छे लिंक्स. सुंदर एवं सार्थक चर्चा. आभार.
जवाब देंहटाएंसादर,
डोरोथी.
सुन्दर चर्चा, आभार।
जवाब देंहटाएंसंगीता जी शुक्रिया चर्चा में शामिल करने का | यूं ही प्रोत्साहन देती रहें | क्षमा चाहता हूँ देर से पहुचने की |
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