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शनिवार, नवंबर 20, 2010

"आओ साथी जी लेते हैं" (चर्चा मंच-344)

गम को हँस कर पी लेते हैं।
गर फैसले गैरों पे टाले न होते,
तब
इतने घोटाले न होते,
आशाओं की
और
चलो चलें लेकर हम जीवन का अभिनव रथ,
हारे का है राम-नाम जप,
अधरों को हम सीं लेते हैं।

तरस नहीं कोई खाता है,
बलि का बकरा चिल्लाता है,
अंधेरी नगरी में आकर,
सूरज थोड़ा शर्माता है,
अधरों पर
बद से बदतर सबके हाल.
मक्कारों को काजू-पिस्ते,
रिश्वत ईश्वर भी लेते हैं।

रण में भी रणछोड़ मिलेंगे,
निर्धनता कितनी रकीब है,
भवसागर में मगर अकेला,
नहीं दिखा कमजोरों को बल,
तन में ज्वर का ज्वार चढ़ा है,
फिर भी कम्पन बहुत बढ़ा है,
कार्टून से काम चलाना,
उफ़ !! कैसा ये व्यंग्य लगाया,
चर्चा में नवगीत बनाया,
ब्लॉगर मित्रों, तुम्हें प्रणाम !
अब तो आज्ञा ही लेते हैं।

14 टिप्‍पणियां:

  1. कवितामय चर्चा बहुत अच्छी रही |बधाई
    आशा

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही शानदार गजब की चर्चा ..... आभार

    जवाब देंहटाएं
  3. काव्यमय चर्चा बहुत खूबसूरत लगी ..सभी लिंक्स देख लिए ..आभार ..

    जवाब देंहटाएं
  4. आज का ये अन्दाज़ बेहद उम्दा रहा और ज्यादातर सभी लिंक्स पर हो आई हूँ…………बहुत बढिया लिंक्स लगाये हैं ……………आभार्।

    जवाब देंहटाएं
  5. bahut sundar charcha... Shastri ji ..kavita ke dwara link diye ..tabiyat theek na rehne par bhi aapne umda post banayi hai..badhai

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुन्दर रचना के माध्यम से लिंक्स को सजाया है!!!
    संग्रहणीय गीत बन पड़ा है!सुन्दर समन्व्यय!!!

    जवाब देंहटाएं
  7. चर्चा का यह नया अन्दाज भी पसन्द आया शश्त्री जी, अस्वस्थ्था के कारण ब्लोग जगत पर विचरण सीमित है, जिसके लिये क्षमा प्राथी हूं !

    जवाब देंहटाएं
  8. आज तो शास्त्री जी आपने बेजोड चर्चा लगायी है.बहुत पसंद आया ये अनोखा अंदाज़.

    जवाब देंहटाएं
  9. चर्चा में इस पोस्ट को डालने का शुक्रिया। मगर गीत की तो हत्या हो गई :)

    जवाब देंहटाएं

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