इससे पहले उबलते उबलते कुछ छ्लक कर गिरे
और बिखर जाये जमीन पर
तिनका तिनका छींटे पड़े कहीं सफेद दीवार पर
और कुछ काले पीले धब्बे बनायें
लिख लिया कर मेरी तरह रोज का रोज कुछ ना कुछ
कहीं ना कहीं किसी रद्दी कागज के टुकड़े पर ही सही
कागज में लिखा
बहुत आसान होता है
छिपा लेना मिटा लेना ...
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मधु सिंह : विशालाक्षा (7) चर्चा जारी है विशालाक्षा स्वागत अभिनंदन भी होगापथ पथिक और सब देव मिलेंगेंमार्ग नया होगा अनजानानभचर नए अनेक मिलेंगें मन में हो गंतव्य तुम्हारामात्र यक्ष हो लक्ष्य तुम्हारा नहीं कहीं तुम राह भटकना हो पावन गंतव्य तुम्हारा ... |
लगाकर रखा था बरसों तक पहरा
हमें घर से निकलना अब आ गया है।
छाया था काले धुएँ सा कुहरा
हमें सूरज सा निकलना आ गया है।
जीवन के टेढ़े - मेढ़े रास्तों, संभल जाओ
हमें राह बदलना अब आ गया है...
काव्य वाटिका पर कविता विकास |
टेलीविशन रेटिंग प्वाइंट्स: |
ज़िन्दगी फिर से चले !![]() रात गए नींद नहीं आती उम्र का असर है या अनुभवों का तनाव घड़ी की टिक टिक की तरह हर दौर की सीढ़ियाँ चढ़ती-उतरती हूँ साँसें चढ़ जाती हैं तो बचपन के तने से टेक लगा बैठ जाती हूँ आँखें दूर कहीं लक्ष्य साधती हैं कभी चेहरे पर मुस्कान तैरती है कभी भय कभी उदासी कभी … निर्विकार होना ही पड़ता है ! .... |
यही हमारी दीवाली![]() सड़क पर पत्थर डालने वाला एक अभागा मजदूर हूँ ठेके पर गया ठेकेदार और मैं मजदुरी से मजबुर हुँ.. |
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भटक रहा है मारा-मारा।
गधा हो गया है बे-चारा।।
जनसेवक ने लील लिया है,
बेचारों का भोजन सारा...
उच्चारण |
मिलिये इंटरनेट की टाइम मशीन से![]() |
बालिग बनकर कब सोचेंगे तन से बालिग बन बैठे है मन से अब तक ही छोटे है... |
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पहल पुरुष के हाथ में, सम्पूरक दो देह क्रीड़ा-हित आतुर दिखे, दिखे परस्पर नेह | पहल पुरुष के हाथ में, सम्पूरक दो देह | सम्पूरक दो देह, मगर संदेह हमेशा | होय तृप्त इत देह, व्यग्र उत रेशा रेशा | भाग चला रणछोड़, बड़ी देकर के पीड़ा | बनता कच्छप-यौन, करे न छप छप क्रीड़ा... |
चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ |
Mukesh Kumar Sinha |
Ashok Kumar Pandey |
काजल कुमार के कार्टून |
"मेरा बचपन"
काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
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एक गीत
"मेरा बचपन"
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जब से उम्र हुई है पचपन।
फिर से आया मेरा बचपन।। पोती-पोतों की फुलवारी, महक रही है क्यारी-क्यारी, भरा हुआ कितना अपनापन। फिर से आया मेरा बचपन।। |
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स्वप्नों में जीना उनमें ही खोए रहना
आनंद है ऐसा गूंगे के स्वाद जैसा...
Akanksha पर Asha Saxena |
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सम्मान – प्रेम को नष्ट और द्वेष को आकृष्ट करता है
इन दिनों अन्य शहरों में आवागमन बना रहा, इसकारण दिमाग के विचारों का आवागमन बाधित हो गया। नए-पुराने लोगों से मिलना और उनकी समस्याएं, उनकी खुशियों के बीच आपके चिंतन की खिड़की दिमाग बन्द कर देता है। जब बादल विचरण करते हैं तब वे सूरज के प्रकाश को भी छिपा लेते हैं, ऐसा ही हाल हमारे विचरण का भी होता है कि दिमाग रोशनी नहीं दे पाता। लेकिन अनुभव ढेर सारे दे देता है यह विचरण। पोस्ट को पूरा पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://sahityakar.com/wordpress/ अजित गुप्ता का कोना पर smt. Ajit Gupta |
अब पाओ डोमेन नेम एकदम फ्री
नमस्कार दोस्तो, आज हम लेकर आये हैं आप के लिये एक खुशखबरी। हम जल्दी ही हिन्दी ब्लॉगर्स के लिये एक नि शुल्क डोमेन नेम की सुविधा शुरू करनें जा रहे हैं। जहॉ हम हिन्दी ब्लॉगर को डॉट इन एक्सटेंशन वाला डोमेन फ्री देंगे। यह सेवा हम अपने ब्लॉग की पहली सालगिरह 1 जनवरी को शुरू करेगें। हम एक जनवरी को शुरू होने वाले सेवा के अन्तगर्त निम्न सेवा निशुल्क देंगे। 1. फ्री डोमेन नेम (.in)2. फ्री दो ईमेल एड्रेस अगर आप भी अपने ब्लॉग के लिये डोमेन रजिस्टर कराना चाहते हो तो कमेन्ट बॉक्स में अपनें ब्लॉग का एड्रेस लिख् दें। हमारी टीम शीघ्र आप से सम्पर्क करेगी। नोट- यह सेवा 20 दिसम्बर 2013 तक उपलब्ध है। इससे पहले ही अपने ब्लॉग का एइ्रेस और अपना इमेल एड्रेस कमेंन्ट बॉक्स में लिख दें। Hindi Internet Technologyपरfarruq abbas |
तू वही है.....ग़ज़ल ....डा श्याम गुप्त ....
तू वही है तू वही है | प्रश्न गहरा , तू कहीं है... सृजन मंच ऑनलाइन |
आखिर क्यों ?
बा -मुश्किल ही छू पाती हैं कामशिखर को औरतें जानिये इस श्रृंखला के तहत माहिरों की राय (पहली क़िस्त ) गोरी *गोही आदतन, द्रोही हरदम मर्द | गर्मी पल में सिर चढ़े, पल दो पल में सर्द | पल दो पल में सर्द, दर्द देकर था जाता | करता था बेपर्द, रहा हर वक्त सताता.. |
"रूप" हमारा चाहे जो हो,
ReplyDeleteकिन्तु गधे सा काम हमारा।
सदनों में बहुमत है हमारा।
चारे से अब नहीं गुज़ारा
कोयला हमको खूब है भाता।
देश -विदेश की सैर कराता।
sundar hai ati sundar rchnaan
सुन्दर है अति सुन्दर रचना ,
गरदभ(गर्दभ ) राज सबक सिखलाता ,
प्रजातंत्र का मर्म निभाता।
ReplyDeleteअच्छी है भइ अच्छी चर्चा ,
गर्दभ हमको है समझाता।
चर्चा मंच पर मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार |आज कई सूत्र पठनीय |
ReplyDeleteअरे लालू जैसे कितने देखे ,
ReplyDeleteनहीं किसी की कोई साख ,
हम असली नंदन बैसाख।
भैया हैम असली नंदन बैसाख।
दिन भर करते रहते काम ,
ईश्वर की भक्ति निष्काम।
नहीं किसी से हमको काम।
खटें रात दिन हम बदनाम।
बर्फ पिघली और दरिया की रवानी हो गयी।
ReplyDeleteतुम मिले तो जिन्दगानी, जिन्दगानी हो गयी।।
ढीठ झोके ने हवा से छू लिया उसका बदन।
शर्म से इक शोख नदिया पानी-पानी हो गयी।।
खाक करने पर तुली थी धूप फसलों को मगर।
वे तो कहिये बादलों की मेहरबानी हो गयी।।
दिल की बस्ती में तो जख्मों का बसेरा हो गया।
आंख मेरी आंसुओं की राजधानी हो गयी।।
कल सियासत कह रही थी दल न बदलेंगे कभी।
ये तवायफ कब से आखिर स्वाभिमानी हो गयी।।
क्यों तवायफ कहके इनको रात दिन करते बदनाम ,
राजनीतिक धंधे बाज़ों से बहुत ऊपर है इनका नाम ,
बहुत सुन्दर प्रस्तुति भाई रमेश जी पांडे।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteपोती-पोतों की फुलवारी,
महक रही है क्यारी-क्यारी,
भरा हुआ कितना अपनापन।
फिर से आया मेरा बचपन।।
बचपन में हम रहते आये ,
बचपन को कुछ कहते आये।
बहुत सुन्दर रचना है -
बचपन खुद मेरा विस्तार ,
आज समझ ले इसको यार।
एक गीत
"मेरा बचपन"
ReplyDeleteफौरी समझौता सही, किन्तु सटीक उपाय |
सात जन्म के चक्र से, रक्षा भी हो जाय |
रक्षा भी हो जाय, नहीं क़ानूनी अड़चन |
छोड़-छाड़ हट जाय, अगर भर जाए तन-मन |
सोमवार व्रत छोड़, हुई कैलासी गौरी |
मची यहाँ भी होड़, शुरू समझौता फौरी ||
सहजीवन है दोस्तों बाकी एक उपाय ,
औरत हरदम देखती खड़ी पड़ी निरूपाय।
सुन्दर है रविकर जी भारत जैसे देश में सहजीवन रामबाण है तहलकों से कारगर बचाव है भाई-लिविंग टुगेदर ।
वाह आज तो दूसरे लिंक के साथ 2-2 कार्टून आ गए. धन्यवाद जी.
ReplyDeleteआदरणीय ज्योति खरे जी की सासू माँ का सवास्थ जल्दी ठीक हो ताकि फिर से आकर वो चर्चा को सजायें ! उल्लूक की बकवास " और ये हो गयी पाँच सौंवी बकवास" से आगाज किया है आज की मनभावन चर्चा का बहुत बहुत आभार !
ReplyDeleteसूत्रों का सुन्दर संकलन।
ReplyDeleteबेहद की खूबसूरती ,अभिनव रूपकत्व लिए हैं तमाम गज़लें।
ReplyDeleteएक बानगी भर देखिये हर अशआर खूबसूरत तासीर लिए है। तर्ज़े ब्यान लिए है।
चुभती-चुभती सी ये कैसी पेड़ों से है उतरी धूप
आंगन-आंगन धीरे-धीरे फैली इस दोपहरी धूप
गर्मी की छुट्टी आयी तो गाँवों में फिर महके आम
चौपालों पर चूसे गुठली चुकमुक बैठी शहरी धूप
ज़िक्र उठा है मंदिर-मस्जिद का फिर से अखबारों में
आज सुब्ह से बस्ती में है सहमी-सहमी बिखरी धूप
बड़के ने जब चुपके-चुपके कुछ खेतों की काटी मेंड़
आये-जाये छुटके के संग अब तो रोज़ कचहरी धूप
झुग्गी-झोंपड़ पहुंचे कैसे, जब सारी-की-सारी हो
ऊँचे-ऊँचे महलों में ही छितरी-छितरी पसरी धूप
बाबूजी हैं असमंजस में, छाता लें या रहने दें
जीभ दिखाये लुक-छिप लुक-छिप बादल में चितकबरी धूप
घर आया है फौजी, जब से थमी है गोली सीमा पर
देर तलक अब छत के ऊपर सोती तान मसहरी धूप
गौतम राजरिशी की ग़ज़लें
असुविधा....पर
Ashok Kumar Pandey
बहुत सुंदर चर्चा .
ReplyDeleteसुंदर संकलन....उम्दा लिंक्स....!!!
ReplyDeleteबढ़िया चर्चा व सुंदर सूत्र , धन्यवाद
ReplyDeletebahut sundar sanklan ...thanks for my link
ReplyDeleteबहुत सुंदर चर्चा बढ़िया सूत्र ....!
ReplyDelete==================
नई पोस्ट-: चुनाव आया...
स्वागत है आदरणीय-
ReplyDeleteबढ़िया लिंक्स-
उत्तम चर्चा-
आभार
सुन्दर चौके-छक्के हैं....
ReplyDeleteNice artical sir nonuPyw to go to yahoo.
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