मित्रों।
शनिवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
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तेरी हरकत पे निगहबान नज़र रखता है
वो बागवां है ,गुलिस्तां में असर रखता है।
तेरी हरकत पे निगहबान नजर रखता है।।
जहाँ रकीब भी रो कर गया है मइयत पे।
पाक दामन में मुहब्बत भी कहर रखता है...
तीखी कलम से पर
Naveen Mani Tripathi
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आओ पढ लो मुझे
जैसे पढी थी बचपन में
दो एक्कम दो दो दूनी चार,
और कंठस्थ किया था
अ से अनार...
हालात आजकल पर
प्रवेश कुमार सिंह
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महज़..........मोहब्बत है !!

वक़्त ठहरा है
या इंतज़ार नहीं होता हमसे
या फिर शायद मोहब्बत में
इंतज़ार की घड़ियाँ
कुछ इस कदर और लम्बी हो जाती है
तो फिर क्या ये मोहब्बत है
जिसमें डूबी-डूबी रहती हूँ मैं...
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Lekhika 'Pari M Shlok' -
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चलिए नए साल के आने पर
कुछ नया काम काज शुरू करते हैं
कुछ नया लिखते पढ़ते हैं।
जानकारी 19 जनवरी शिवना सम्मान की,
पुस्तक मेले की और तरही मुशायरे की।

सुबीर संवाद सेवा पर पंकज सुबीर
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एहसासों की प्यास .....
एक कल्पना है सच्चा प्यार
बस झूठा सपना है यार
दुनिया का रंग
जब उसमें छू जाता है
प्यार बेचारा बेरंग हो जाता है...
बस झूठा सपना है यार
दुनिया का रंग
जब उसमें छू जाता है
प्यार बेचारा बेरंग हो जाता है...
आपका ब्लॉग पर इंतज़ार
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केवल शस्त्र चलाते हैं
अश्वस्थामा की तरह।
एक स्वार्थ के लिये
काटते हैं उस वृक्ष को
जो किसी से कुछ नहीं कहता
न किसी से कुछ मांगता है।
खड़ा है वर्दान बनकर
घर हैं इन पंछियों का भी।
देता है स्वच्छ हवा
हमे जीने के लिये भी...
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उर्दू बहर पर एक बातचीत
:क़िस्त 10
इस मज़्मून में ज़िहाफ़ क्या होते हैं ,कितने क़िस्म के होते है ,उर्दू शायरी में इनकी क्या अहमियत या हैसियत है , ज़िहाफ़ात न होते तो क्या होता वग़ैरह वग़ैरह पर बातचीत करेंगे
"ज़िहाफ़" का लगवी मानी [शब्द कोशीय अर्थ] ...न्यूनता ,कमी,छन्द की मात्राओं के काट-छाँट कतर-व्योंत करना वगैरह. होता है
मगर शायरी के इस्तलाह [परिभाषा ] में किसी सालिम रुक्न की वज़न [मात्राओं] में काट-छाँट ,क़तर-ब्योंत करना .कम करने के अमल को ज़िहाफ़ कहते हैं...
"ज़िहाफ़" का लगवी मानी [शब्द कोशीय अर्थ] ...न्यूनता ,कमी,छन्द की मात्राओं के काट-छाँट कतर-व्योंत करना वगैरह. होता है
मगर शायरी के इस्तलाह [परिभाषा ] में किसी सालिम रुक्न की वज़न [मात्राओं] में काट-छाँट ,क़तर-ब्योंत करना .कम करने के अमल को ज़िहाफ़ कहते हैं...
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आईने भी हिंदू-मुस्लिम-ब्राहमनवादी निकले रे
अपने मुताबिक चेहरे गढ़ लेने के आदी निकले रे
आईने भी हिंदू-मुस्लिम-ब्राहमनवादी निकले रे
जिनका मक़सद-ए-आज़ादी था औरों की ग़ुलामी
वही बारहा बनके मसीहा-ए-आज़ादी निकले रे...
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"42वीं वैवाहिक वर्षगाँठ"
बस इतना उपहार चाहिए।
हमको थोड़ा प्यार चाहिए।।
रंग नहीं अब, रूप नहीं अब,
पहले जैसी धूप नहीं अब,
ममता का आधार चाहिए।
हमको थोड़ा प्यार चाहिए...
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सुप्रभात
ReplyDeleteउम्दा सूत्र
४२ वी शादी की सालगिरह पर हार्दिक बधाई चर्चा मंच के माध्यम से शास्त्री जी |
बहुत बढ़िया चर्चा प्रस्तुति हेतु आभार!
ReplyDeleteakaanksha ji ki rachna man ko bhaa gayi ji sankalan ke to kahne hi kyaa ?? very-good !!
ReplyDeleteumda charcha...meri kavita ko sthan dene kay liye shukriya
ReplyDeleteसुन्दर चर्चा सूत्र ...
ReplyDeleteसुन्दर चर्चा
ReplyDeleteअच्छी चर्चा
ReplyDeleteबहुत बढ़िया चर्चा
ReplyDeleteकार्टून को भी सम्मिलित करने के लिए आभार जी
ReplyDeleteमारी रचना ''नवगीत ( 1 ) खाता हूँ बस घास-फूस मैं '' को शामिल करने का धन्यवाद ! मयंक जी !
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर चर्चा . शादी की ४२वीं सालगिरह मुबारक हो
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