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बुधवार, मई 18, 2016

"भाषा की दुर्दशा" (चर्चा अंक-2346 )

मित्रों
बुधवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

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गीत "छटा अनोखी अपने नैनीताल की" 

(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 

सारे जग से न्यारी शोभा, इस नैसर्गिक ताल की।छटा अनोखी मन को भाती, अपने नैनीताल की।।--नौकायन का लुत्फ उठाओ, इस कुदरत की झील में, चप्पू स्वयं चलाना सीखो, पानी की तहसील में,चलती पवनवेग से कितनी, नाव यहाँ पर पाल की।  छटा अनोखी मन को भाती, अपने नैनीताल की... 
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मांगिए सर मियां ! 

शे'र कहना कहीं गुनाह नहीं 
फिर हमें भी तो कोई राह नहीं 
ले गए जान वो निगाहों से 
पर कोई क़त्ल का गवाह नहीं... 
साझा आसमान पर Suresh Swapnil 
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हम बंद कमरों में बैठे हैं 

पंछी तो गीत गाते हैं, 
मां के पास वक्त नहीं है, 
बच्चे लोरी सुनना चाहते हैं। 
न कल कल झरनों नदियों की, 
न किलकारियां मासूम बच्चों की, 
संगीत नहीं है जीवन में, 
नीरसता में पल बिताते हैं... 
kuldeep thakur 
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जो वैष्णव नहीं होंगे शिकार हो जाएंगे ... 

*-अंशु मालवीय * वैष्णव जन आखेट पर निकले हैं! उनके एक हाथ में मोबाइल है दूसरे में देशी कट्टा तीसरे में बम और चौथे में है दुश्‍मनों की लिस्‍ट. वैष्‍णव जन आखेट पर निकले हैं! वे अरण्‍य में अनुशासन लाएंगे एक वर्दी में मार्च करते एक किस्म के पेड़ रहेंगे यहां. वैष्‍णव जन आखेट पर निकले हैं! वैष्‍णव जन सांप के गद्दे पर लेटे हैं लक्ष्‍मी पैर दबा रही हैं उनका मौक़े पर आंख मूंद लेते हैं ब्रह्मा कमल पर जो बैठे हैं. वैष्‍णव जन आखेट पर निकले हैं! जो वैष्‍णव नहीं होंगे शिकार हो जाएंगे ... 
Pratibha Katiyar  
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एक सेवानिवृत पति की दिनचर्या का हाल  

 सुबह : पत्नी : अज़ी सुनते हो , आज कामवाली बाई नहीं आएगी और डस्टिंग करने वाली भी अभी तक नहीं आई। अब आप सम्भालो , मेरा टाइम हो गया ऑफिस का। ज़रा जल्दी से मेरा लंच पैक कर दो। पति : ठहरो , मैं ऐ टी एम से पैसे निकाल लाऊं । पत्नी : अरे आप तो रिटायर्ड आदमी हैं। अब आपको पैसों की क्या ज़रुरत है ? दस बीस रूपये चाहिए तो मेरे पर्स से निकाल लिया करो। वैसे भी आप ने क्या खर्च करना है , हमेशा से कंजूस के कंजूस ही तो रहे हो... 
अंतर्मंथन पर डॉ टी एस दराल 
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अंजाम क्या होगा  

(ग़ज़ल) 

इस बेनाम चाहत का न जाने अंजाम क्या होगा 
बैचैन दिल को जो सुकून देगा उसका नाम क्या होगा 
निगाहें ढूंढती हैं हरपल उस हमसफ़र को कहीं 
मिल वो जाये तो उसका निशान क्या होगा... 
कविता मंच पर Hitesh Sharma  
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मैंने अपने पद का कार्यभार सँभाला ही था की एक वृद्ध मेरे सामने आ खड़े हुए. चेहरा झुर्रियों से भरा था, बाल सफ़ेद और बिखरे हुए थे, आँखों पर निराशा और उदासी की परत चढ़ी हुई थी. एक सहमी हुई आवाज़ मुझ तक पहुंची, ‘सर, क्या मैं आप से कुछ कह सकता हूँ?’ मेरे कुछ कहने के पहले ही अनुभाग के कुछ लोग एक साथ बोल पड़े, ‘अरे बाबा, हमारा पिंड कब छोड़ोगे... 
आपका ब्लॉग पर  i b arora 
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एकान्त-मन 

आज एकान्त में बढ़ती विवशता, 
सदा खालीपन सताता है समय का । 
मन अभी भी बाल्य मेरा, 
व्यस्तता का पा खिलौना । 
विषय की भी रिक्तता में, 
खेलता रहता मगन हो ।। 
नहीं आवश्यक इसे आधार चिन्तन का, 
और न सूझे इसे व्यवहार जीवन का । 
यह बढ़ा देता कदम, 
बस सहजता का सार पाकर, 
जिस दिशा में इसे केवल भीड़ का विस्तार दिखता... 
Praveen Pandey 
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संदेह 

Sanjay kumar maurya 
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गंवईपन की मिथकीय अवधारणाएं 

कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं, स्‍मृति में जिनके प्रभाव बहुत गहरे जाकर धंस जाते हैं और गाहे-बगाहे वे याद आती ही रहती हैं। खास तौर पर कोई भिन्‍न घटना] दृष्‍टा की पूर्व कल्‍पना में जिसका कोई चित्र न हो, स्‍मृति के किसी कोने में यदि कोई प्रतिछाया हो भी लेकिन वह पहले से भिन्‍न हो। ऐसी घटनाओं की विशेषता होती है कि वे भिन्‍न अनुभवों से समृद्ध कर रही होती हैं... 
लिखो यहां वहां  पर विजय गौड़ 
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गज़ल 

JHAROKHA पर पूनम श्रीवास्तव 
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भाषा की दुर्दशा 

आज टीवी पर किसी कार्यक्रम का विज्ञापन आ रहा था हिंदी में...जहाँ *वैज्ञानिक *को *वैग्यानिक*लिखा था..वहीँ *अदृश्यता* को *आद्रिश्यता* लिखा था...ऐसी ग़लतियाँ अक्सर देखने मिलती है...न सिर्फ मनोरंजक चैनल्स में बल्कि न्यूज़ चैनल्स में भी..ये टाइपिंग की ग़लतियाँ तो नहीं हैं..ये हिंदी भाषा के ज्ञान की कमी है..इन दिनों हिंदी का स्तर गिरता जा रहा है..हैरत की बात तो ये हैं कि इस तरह की ग़लतियाँ जितनी टेलिविज़न और इन्टरनेट में देखने मिलती है उतनी ही प्रिंट मिडिया में भी देखने मिल रही है... 
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तलाश जारी है
अनवरत 'स्व की
अपना ‘वजूद’ है क्या ?
आये खेले ..
कोई घर घरौंदा बनाए..
लात मार दें हम उनके 
वे हमारे घरों को.... 

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निर्मल-कोमल कोमल-शीतल शीतल-पावन और निश्छल हों। 
हम जो देखें और जो जानें बस वो माने जीवन सफल हो... 
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1 टिप्पणी:

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