मित्रों
सोमवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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माँ
अचेत अबोध शिशु को, सीने से लागाकर तू माँ
बड़ा किया उसको अपने खून से, सींचकर तू माँl |
अंगुली थामकर क़दमों पर, चलना सिखाया मुझको
इंसान बनाया मुझको, संस्कार से सींचकर तू माँ...
कालीपद "प्रसाद"
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संबंधों में लड़ नहीं पाता बस रास्ता बदल लेता हूं
अभिनय हो नहीं पाता सो सीन से निकल लेता हूं
संबंधों में लड़ नहीं पाता बस रास्ता बदल लेता हूं
संबंधों में लड़ नहीं पाता बस रास्ता बदल लेता हूं
दिख जाते हैं अब भी कभी कभार वह चौराहे पर
सिगरेट सुलगाता हूं सुलगता हूं और चल देता हूं...
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भारत विकास रथ की खातिर,
शिक्षको सारथी बन जाओ,
अज्ञान अंधेरी रातों सा, इल्मी कंदील जला डालो।
दूर अशिक्षा करने को ,अब ईंट से ईंट बजा डालो।
कथनी से करनी तक पहुँचो,भारत माँ के आँसू पौंछो,
कंधे से कंधा मिला रहे ,और दीप से दीप जला डालो...
दूर अशिक्षा करने को ,अब ईंट से ईंट बजा डालो।
कथनी से करनी तक पहुँचो,भारत माँ के आँसू पौंछो,
कंधे से कंधा मिला रहे ,और दीप से दीप जला डालो...
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न मालूम, कोई कैसे भूल पाता है
इश्क़ तमाम उम्र रोया है यादों से लिपट कर,
अजीब सुलगन है आँसुओं से बुझती ही नहीं ,
भला , भूल कर भी भुला पाया है कोई हमदर्द ,
"भुला देना हमें" यूं ही कहते हैं बिछुड़ने वाले ,
जैसे जुदा होने की कोई रस्म हो शायद,
तूँ मेरी रूह में शामिल है बेखबर इस कदर ,
आईना देखता हूँ,तूँ सामने मुस्कुराती है ,
न मालूम, कोई कैसे भूल पाता है ...
अजीब सुलगन है आँसुओं से बुझती ही नहीं ,
भला , भूल कर भी भुला पाया है कोई हमदर्द ,
"भुला देना हमें" यूं ही कहते हैं बिछुड़ने वाले ,
जैसे जुदा होने की कोई रस्म हो शायद,
तूँ मेरी रूह में शामिल है बेखबर इस कदर ,
आईना देखता हूँ,तूँ सामने मुस्कुराती है ,
न मालूम, कोई कैसे भूल पाता है ...
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क्या है कोई हल
ये जानते हुए भी कि तुम ही हो मेरे
तर्क वितर्क संकल्प विकल्प आस्था अनास्था
फिर भी आरोप प्रत्यारोप से
नहीं कर पाती ख़ारिज तुम्हें
ऊँगली तुम पर ही उठा देती हैं
मेरी चेतना...
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काम नहीं नाम बिकता है...
सरहदों पर खड़े हैं रक्षक घर से दूर
मां की रक्षा के लिये।
पर हम नहीं जानते उन्हें
बच्चे भी नहीं पहचानते उन्हें
क्योंकि उनकी लाइव कर्वेज नहीं होती।
वे अभिनय भी नहीं कर रहे हैं।
उनका भाग्य मैदानों में लगने वाले
चौकों छक्कों पर निर्भर नहीं होता...
kuldeep thakur
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बैठे ठाले-१६ :
ईमान का दिया
मेरे शहर हल्द्वानी में अनगिनत फेरीवाले कबाड़ी हैं. ये साईकिल पर सवार होकर गली-गली बस्ती-बस्ती आवाज लगाते जाते हैं. लोहा, पीतल, अल्म्युनियम आदि धातुओं से लेकर कांच के बोतल, प्लास्टिक का टूटा-फूटा सामान, तथा रद्दी अखबार, गत्ते, पुरानी कॉपी किताबें, सब कुछ ओने-पौने भाव में खरीद कर ले जाते हैं, और उसे कबाड़ के बड़े व्यापारियों तक पंहुचाते हैं. इन बेकार समझी जाने वाली चीजों की रीसाईक्लिंग होती है. ये धंधा कब शुरू हुआ इसका कोई निश्चित इतिहास नहीं है. मैं सोचता हूँ कि अगर ये कबाड़ यों ही घरों में पड़ा रहता है तो बदसूरत ढेर सा लगता है, पर अपने सही मुकाम पर पहुंचकर रूप बदल लेता है...
जाले पर पुरुषोत्तम पाण्डेय
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खुला ख़त
रागिनी, पिछले कुछ दिनों से मेरा ख़त सुर्ख़ियों में है
और इसलिए तुम्हारा ख़त भी सुर्ख़ियों में ही है.
तुम्हे पता है रागिनी तुम्हारी याद मुझे तब आयी
जब मेरा ख़त सुर्ख़ियों में आया...
प्रभात
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मदर्स डे ?
कहने को आज मदर्स डे है
और कोशिश करेंगे सब खुद को
माँ का खैरख्वाह सिद्ध करने की
लेकिन क्या हम यकीन से कह सकते हैं कि
कहीं ऐसा नहीं हो रहा होगा कि
कहीं कोई माँ बेघर हो रही हो ,
बेटे उसे रखने को राजी न हो
फिर चाहे सब कुछ उसी माँ का दिया हो...
vandana gupta
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"गीत न जबरन गाऊँगा"
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जो मेरे मन को भायेगा,
उस पर मैं कलम चलाऊँगा।
दुर्गम-पथरीले पथ पर मैं,
आगे को बढ़ता जाऊँगा।।
मैं कभी वक्र होकर घूमूँ,
हो जाऊँ सरल-सपाट कहीं।
मैं स्वतन्त्र हूँ, मैं स्वछन्द हूँ,
मैं कोई चारण भाट नहीं।
फरमाइश पर नहीं लिखूँगा,
गीत न जबरन गाऊँगा...
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मातृ-दिवस पर माँ को प्रणाम करते हुए
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पैंसठ वर्षों तक मिला, माँ का प्यार-दुलार।
माँ तुझ बिन सूना लगे, अब मुझको संसार।।
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पैंसठ वर्षों तक मिला, माँ का प्यार-दुलार।
माँ तुझ बिन सूना लगे, अब मुझको संसार।।
होता है धन-माल से, कोई नहीं सनाथ।।
सिर पर होना चाहिए, माता जी का हाथ।।
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जिनके सिर पर है नहीं, माँ का प्यारा हाथ।
उन लोगों से पूछिए, कहते किसे अनाथ...
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