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शनिवार, जून 04, 2016

"मन भाग नहीं बादल के पीछे" (चर्चा अंकः2363)

मित्रों
शनिवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

हजारों गम हैं 

यूं ही कभी पर राजीव कुमार झा 
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ग़ज़ल  

"यहाँ दो जून की रोटी" 

(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 


ज़रूरत बढ़ गईँ इतनी, हुई है ज़िन्दग़ी खोटी।
बहुत मुश्किल जुटाना है, यहाँ दो जून की रोटी।।

नहीं ईंधन मयस्सर है, हुई है गैस भी महँगी,
पकेगी किस तरह बोलो, यहाँ दो जून की रोटी... 
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सावित्री – सत्यवान 

सावित्री-सत्यवान की अनमिट है कहानी नए रूप में परिवर्तित है उनकी कथा पुरानी. सावित्री की कथा ये कहती अद्भुत है नारी की शक्ति श्रद्धा-भक्ति तप की मूर्ति अथक मनोबल थी सावित्री इस महाकाव्य के सारे पात्र सत्य-गर्भित है...  
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गीत 

नित अम्बु नयन से है बरसा । 
मधुमास बिना निज घन तरसा... 
Naveen Mani Tripathi 
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पाठ्यक्रम :  

नैतिक और सांस्कृतिक मूल्य ! 

शिक्षा मानव जीवन की ऐसी नींव डालता है , जो उसके मनो-मष्तिष्क में गहरे पैठ जाती है 
और इसके कारण ही बच्चों के जीवन में संस्कार या फिर अपने समाज , देश और परिवार के प्रति एक अवधारणा बन जाती है। चाहे घर हो , स्कूल हो या फिर उसका अपना दायरा - उसके चरित्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है... 
मेरा सरोकार पर रेखा श्रीवास्तव 
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रसोईघर -3- पतोड़ 

मधुर गुंजन पर ऋता शेखर मधु 
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ज़रा सोचिये उस परीक्षा के परिणाम क्या होंगे 
और ऐसे टॉपर्स जब देश की बागडोर सम्हालेंगे तो 
देश किस दिशा में जायेगा !

नक़ल करें
 या बुद्धि का विकास 
घनी दुविधा
आये अव्वल 
दुनिया के सामने 
रहे जाहिल...  
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सिनेमा में दलित-स्त्री 

सिनेमा में दलित-स्त्री विषयक मुद्दे को दो तरह से देखा जा सकता है- एक तो स्वयं सिनेमा इंडस्ट्री में दलित-स्त्रियों की उपस्थिति कितनी है और दूसरे, सिनेमा में दलित-स्त्री मुद्दे की अभिव्यक्ति कितनी और किस-किस रूप में हुई है। आइए, पहले दलित और स्त्री आइडेंटिटी को अलग-अलग करके विचार करते हैं... 
जय कौशल पर Jai Kaushal  
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kwaanr maheena aur garbhvati dhoop 

(यात्रा वृत्तांत) क्वाँर महीना और गर्भवती धूप *क*भी ऐसा भी होता है कि कोई भ्रम उसके यथार्थ से अच्छा लगने लगता है। तब उससे बाहर निकलने के बदले अपना मन इस भ्रम को सायास बनाये रखना चाहता है। उस दिन भी यही हो रहा था। वह विश्वकर्मा पूजन का दिन था और रास्ते भर पण्डाल सज रहे थे। देव प्रतिमा की स्थापना हो रही थी। मुझे दुर्गा पूजा की तैयारियों का भ्रम हो रहा था। इस भ्रम को बनाये रखना अच्छा लग रहा था। वह सितम्बर महीने के दूसरे पखवाड़े का बेहद उमस भरा समय था... 
सतीश का संसार पर satish jayaswal 
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आज तोताराम एक नए ही अवतार में प्रकट हुआ- हाथों में अखबार का बना जापानी पंखे जैसा कुछ,ओठों को गोलाई दिए हुए, शरीर वाइब्रेंट मोड में मोबाइल की तरह थरथराता हुआ और साथ में गाना-
ये लो मैं आया 
हवा हवाया
ये ले रे बाई 
ये ले रे भाया... 

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जब से ये फुटपाथ रहने का ठिकाना हो गया
बारिशों में भीगने का इक बहाना हो गया

ख़त कभी पुर्ज़ा कभी कोने में बतियाते रहे
हमने बोला कान में तो फुसफुसाना हो गया... 

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मुफ्तखोरी की आदत 

हमारा देश मुफ्तखोरो का देश है क्यूंकि कई सौ सालों की गुलामी के बाद मुफ्तखोरी हमें आजादी के इनाम में मिली है ।पहले हम विदेशी शासकों के रहमोकरम पर जिन्दा थे अब सरकारी योजनाओं के रहमोकरम पर अपना पेट पाल रहे है और देश की आधे से अधिक आबादी मुफ्तखोरी के आनंद में मस्त है... 
सादर ब्लॉगस्ते! पर avanindra jadaun 
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2 / 6 / 16 

झरोख़ा पर निवेदिता श्रीवास्तव  
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आसान राह की मुश्किल 

गरीब के लिये पड़ाव क्या और मंजिल क्या ? 
रास्ता आसान क्या और कठिन क्या ? 
उसे तो जब तक सांस है तब तक चलते जाना है 
अपनी मजबूरियों के साथ... 
कासे कहूँ? पर kavita verma 

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