कर रविकर कल से कलह, सुलह अकल से आज। फिर भी हो यदि मन विकल, प्रभु को दे आवाज।। रहन-सहन से ही बने, सहनशील व्यक्तित्व। कर्तव्यों का निर्वहन, सीखे सह-अस्तित्व। अपने मुँह मिट्ठू बनें, किन्तु चूकता ढीठ। नहीं ठोक पाया कभी, वह तो अपनी पीठ।। |
गीत "कुहरा पसरा है आँगन में"(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
सुख का सूरज नहीं गगन में
कुहरा पसरा है आँगन में
पाला पड़ता शीत बरसता
सर्दी में सब बदन ठिठुरता
तन ढकने को वस्त्र न पूरे
निर्धनता में जीवन मरता
पौधे मुरझाये गुशन में
कुहरा पसरा है आँगन में..
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फ़ोटो के साथ आज की चर्चा ... मस्त लिंक ... आभार मुझे भी शामिल करने का ...
जवाब देंहटाएंबढ़िया चर्चा रविकर जी ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर चर्चा प्रस्तुति में मेरी पोस्ट शामिल करने हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंaabhaar
जवाब देंहटाएंmeri post ko sthan dene hetu aabhar
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