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शुक्रवार, दिसंबर 09, 2016

नहीं ठोक पाया कभी, वह तो अपनी पीठ; चर्चामंच 2551


"कुछ कहना है"
कर रविकर कल से कलह, सुलह अकल से आज। 
फिर भी हो यदि मन विकल, प्रभु को दे आवाज।। 

रहन-सहन से ही बने, सहनशील व्यक्तित्व। 

कर्तव्यों का निर्वहन, सीखे सह-अस्तित्व। 

अपने मुँह मिट्ठू बनें, किन्तु चूकता ढीठ। 

नहीं ठोक पाया कभी, वह तो अपनी पीठ।। 
गीत "कुहरा पसरा है आँगन में"  
(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’) 


सुख का सूरज नहीं गगन में 
कुहरा पसरा है आँगन में 

पाला पड़ता शीत बरसता 
सर्दी में सब बदन ठिठुरता 
तन ढकने को वस्त्र न पूरे 
निर्धनता में जीवन मरता 
पौधे मुरझाये गुशन में 
कुहरा पसरा है आँगन में.. 

बोलो जनता जिंदाबाद 

शालिनी कौशिक 
   [कौशल ] 

5 टिप्‍पणियां:

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