मैं तो रही बुझाय, आग पर डालूं पानी
रविकर
पानी भर कर चोंच में, चिड़ी बुझाये आग ।
फिर भी जंगल जल रहा, हंसी उड़ाये काग।
हंसी उड़ाये काग, नहीं तू बुझा सकेगी।
कहे चिड़ी सुन मूर्ख, आग तो नहीं बुझेगी।
किंतु लगाया कौन, लिखे इतिहास कहानी।
मैं तो रही बुझाय, आग पर डालूं पानी ।।
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दोहे,"रँगे हुए हैं स्यार"(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
रूपचन्द्र शास्त्री मयंक
थूक-थूककर चाटते, उनका क्या आधार।
जंगल में जनतन्त्र के, रँगे हुए हैं स्यार।।
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सभी दलों के सदन में, थे प्रतिकूल विचार।
इसीलिए होती सदा, लोकतन्त्र की हार।।
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दाँव-पेच के खेल से, चलता है जनतन्त्र।
बिना लोक के फल रहा, लोकतन्त्र का मन्त्र।।
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शुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
बहुत सुन्दर प्रस्तुति रविकर जी ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया चर्चा प्रस्तुति हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंसुन्दर चर्चा ...
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