परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो
उसमें बहुत कुछ है
जो जीवित है
जीवन दायक है
जैसे भी हो
ध्वंस से बचा रखने लायक है
रामधारी सिंह "दिनकर"
आज की चर्चा में दिनकर जी के सृजन के अंश के साथ आप सभी गुणीजनों का स्वागत व अभिनन्दन!
घर पर रहिए , सजग रहिए । नियम-कानून और लॉकडाउन हमारी रक्षा और स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए हैं । घर पर अपने और अपनों के साथ समय बितायें आप सब से मेरा विनम्र आग्रह 🙏🙏
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आज की चर्चा में अब बढ़ते हैं विभिन्न ब्लॉगस् के चयनित लिंक्स की ओर.. जो आज की चर्चा प्रस्तुति में सम्मिलित किये हैं ---
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बीज वही हैं, वही धरा है,
ताल-मेल अनुबन्ध नही,
हर बिरुअे पर
धान लदे हैं,
लेकिन उनमें गन्ध नही,
खाद रसायन वाले देकर,
महक कहाँ से पाऊँ मैं?
वीराने मरुथल में,
कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?
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शिकायतों का कचरा,
जो भरा पड़ा है,
अलमारियों-दराज़ों में,
ढूंढ कर निकालते हैं उसे,
फेंक आते हैं कूड़ेदान में.
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लॉक डाउन -२ शुरू हो गया आज, इसके अलावा कोई चारा न था। कोरोना महामारी ने पूरे विश्व के सभी लोगों को अपने अपने घर में बैठने के हालात पैदा कर दिए हैं। इससे कई प्रकार की परेशानियाँ खड़ी हुई हैं, पर कोरोना के देश में तीसरे, चौथे या पांचवे लेवल पहुँच जाने से तुलना की जाये तो ये सारी परेशानियाँ काफी छोटी हैं।
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शाख से गिरे
धरा पर बिखरे
रौंदे जाने को
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मैं अहसास की जमीन पर ऊगी
भयानक, घिनौनी, हैरतंगेज
जड़हीना अव्यवस्था हूं
जीवन के सफर में व्यवधान
रंग बदलते मौसमों के पार
समय के कथानक में विजन
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अज्ञानी थे,
या खड़ा था साथ,
तुम्हारे अहंकार,
जब कर रहे थे तुम,
द्वेष की जुगाली,
सीख-समझाइश पर,
अहर्निश कर रहे थे,
रह-रह कर रुदाली।
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एक पल में जी गया मैं
10 साल पुरानी वह शाम
जैसे सारी यादें उमड़ कर
फिर से वापस आ गई हों
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आंखों का ये तेज चीरता
छूवन कठिन शैल प्रस्तर ।
बांध न पाये सांसें सीली
भावों का रिक्त कनस्तर ।
युगों युगों तक पंथ निहारा
रिक्त गागर समय दाही।।
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उस रोज़
सैर से लौटते हुए
मित्र मुझे एक घर में
अकारण ही ले गया
कोई काग़ज़ी लेनदेन था
चाय-पानी के बाद
हम अपने रास्ते पर आए।
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कोई तोहमत जड़ दो औरत पर ,
कौन है रोकनेवाला ?
कर दो चरित्र हत्या ,
या धर दो कोई आरोप !
सब मान लेंगे .
बहुत आसान है रास्ते से हटाना.
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दो साँसों की, बहती दोराहों में,
बिछड़े बहुतेरे...
सूनी राहों पर, चल पड़ता है सहचर,
कोई राही, बन जाता है रहबर,
ये, जीवन के घेरे!
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अनार-नीबू-नीम-सप्रपर्णी-शिरीष-बोगेनबेलिया-जवाकुसुम-सहजन की पत्तियाँ:
धूप उनकी हरीतिमा पर निश्छल फिसल रही है:
मैं सुनता हूँ उनकी समवेत प्रार्थना:
पृथ्वी का मंगल हो!
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शब्द-सृजन-17 का विषय है :-
'मरुस्थल'
आप इस विषय पर अपनी रचना (किसी भी विधा में)
आगामी शनिवार (सायं 5 बजे) तक
चर्चा-मंच के ब्लॉगर संपर्क फ़ॉर्म (Contact Form ) के ज़रिये
हमें भेज सकते हैं।
चयनित रचनाएँ आगामी रविवासरीय चर्चा-अंक में
प्रकाशित की जाएँगीं।
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अनुमति चाहती हूँ 🙏 आपका दिन मंगलमय हो ।
"मीना भारद्वाज"
बहुत सुंदर चर्चा का आरम्भ कविवर रामधारी सिंह 'दिनकर' जी के काव्यांश से। सभी रचनाएँ बेहतरीन। चयनित रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को इस चर्चा में शामिल करने हेतु सादर आभार आदरणीया मीना जी।
उपयोगी लिंको के साथ बहुत सुन्दर चर्चा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआपका आभार आदरणीया मीना भारद्वाज जी।
सुन्दर चर्चा. आभार.
जवाब देंहटाएं" परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो" काश दिनकर जी की इन पंक्तियों का मर्म हम सभी समझ पाते।बेहतरीन प्रस्तुति मीना बहन ,सभी लिंक्स शानदार ,सादर नमस्कार आपको
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुन्दर सार्थक सूत्रों से सुसज्जित आज का संकलन ! मेरी रचना को आज के मंच पर स्थान देने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार मीना जी ! सप्रेम वन्दे !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति है आज आपके द्वारा तैयार की गई आदरणीया मीना दीदी. एक से बढ़कर एक बेहतरीन रचनाएँ चुनी हैं आपने. सभी को बधाई.
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को आज की प्रस्तुति में शामिल करने के सादर आभार आदरणीया मीना दीदी.
अच्छी रचनाओं का सुंदर संकलन
जवाब देंहटाएंसम्मिलित रचनाकारों को बधाई
आपको साधुवाद
मुझे सम्मिलित करने का आभार
सादर