मित्रों।
बुधवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
--
आज की चर्चा का प्रारम्भ
तिरछी नजर वाले गोपेश जैसवाल जी की
ग़ज़ल की एक पंक्ति से करता हूँ
--
"गुलो-बुलबुल का हसीं बाग उजड़ता क्यूं है"
--
साथी साथ निभाते रहना
माँगे से मिलता नहीं, कभी प्यार का दान।
छिपा हुआ है प्यार में, जीवन का विज्ञान।
विरह तभी है जागता, जब दिल में हो आग।
विरह-मिलन के मूल में, होता है अनुराग।।
होती प्यार-दुलार की, बड़ी अनोखी रीत।
मर्म समझ लो प्यार का, ओ मेरे मनमीत।२।
--
वो जो दिन रात रहा करता था गुलज़ार कभी
गुलो-बुलबुल का हसीं बाग उजड़ता क्यूं है
जी-हुज़ूरों से जो यशगान सुना करता था
आज बीबी से फ़क़त ताने ही सुनता क्यूं है
किसी अखबार में फ़ोटो भी नहीं दिखती है
फिर भी मनहूस बिना नागा ये छपता क्यूं है
--
दिव्य स्तर पर काश पहुँच पाए
कभी, अंतरतम का कुहासा
इतना घना कि अपना
बिम्ब भी न देख
पाए कभी।
उस
अदृश्य परिधि में जिस बिंदू से निकले
उसी बिंदू पर पुनः हम लौट आए,
और अधिक, और ज़्यादा
पाने की ख़्वाहिश,
अंदर गढ़ता
रहा