सादर अभिवादन।
सोमवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है।
कल बेटी दिवस मनाया गया जो भारत के लिए नया नहीं है। भारत में बेटियों के प्रति समाज सदैव सदायशता से भरा रहा है। हालाँकि दहेज़ जैसी सामाजिक कुरीति ने बेटियों के लिए समाज में अनेक ख़तरे पैदा कर दिए हैं। माँ-बाप और बेटी का रिश्ता अत्यंत भावुकतापूर्ण होता है। हमारी प्रगतिशील सोच बस सीमित दायरे तक ही सिमटी है क्योंकि आज भी भारतीय सामाजिक ढाँचा बेटी के प्रति अनेक पूर्वाग्रहों से ग्रसित है। बेटे को लेकर अनेक पुरातन रूढ़ियाँ, धार्मिक आख्यान और अंधविश्वास बेटियों की प्रगति में बाधक बने हुए हैं।
बेटियाँ अब जीवन के हरेक क्षेत्र में अपना परचम लहरा रहीं हैं चाहे वह युद्ध क्षेत्र ही क्यों न हो। अब ज़रूरत है चित्त और चेतना को बदलने की।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
आइए पढ़ते हैं विभिन्न ब्लॉग्स पर प्रकाशित कुछ ताज़ा-तरीन रचनाएँ-
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बेटी दिवस पर दोहागीत
बेटी से आबाद हैं, सबके घर-परिवार।
बेटो जैसे दीजिए, बेटी को अधिकार।।
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दुनिया में दम तोड़ता, मानवता का वेद।
बेटा-बेटी में बहुत, जननी करती भेद।।
बेटा-बेटी के लिए, हों समता के भाव।
मिल-जुलकर मझधार से, पार लगाओ नाव।।
माता-पुत्री-बहन का, कभी न मिलता प्यार।
बेटो जैसे दीजिए, बेटी को अधिकार।।
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याद करने की कोशिश है
फजूल है
विधवा नारी
देख यही वह नारी है
जो किस्मत से हारी है ।
श्वेत वस्त्र हैं इसके तन पर
इसकी यही लाचारी है ।।
कुछ दिन पहले मैका से
इसकी हुई विदाई थी ।
खुशियाँ घर आँगन मे छाई
नयी बहुरिया आई थी ।।
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अट्टहास, और कभी मृत सीप के -
खोल में देखा चाँदनी का
उच्छ्वास, वो कोई
सुदूरगामी ट्रेन
थी मध्य -
रात
की, यात्री विहीन, देवदार अरण्य
के स्टेशन में रुकी कुछ पल,
अंतिम प्रहर के स्वप्नों
को बिठाया और
सुदूर कोहरे
के देश
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कल बहुत देर तलक सोचती रही
फिर सोचा बात कर ही लूं
फिर मैंने ज़िंदगी को फ़ोन लगाया
मैंने कहा आओ बैठो किसी दिन
दो चार बातें करते हैं
एक एक कप गर्म चाय की प्याली
एक दूसरे को सर्व करते हैं
बहार छाई है महफिल में
रात भर महफिल सजी है
तुम्हारी कमी खल रही है
बीते पल बरसों से लग रहे हैं
यह दूरी असहनीय लग रही है
पर क्या करूँ मेरे बस में कुछ नहीं है
जो तुमने चाहा वही तो होता आया है
पंछी नभ में उड़ता था यह बात पुरानी है,
अब तो बस पिंजरा है ,उसमें दाना-पानी है।
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वे ही आ पहुँचे हैं जंगल में आरी लेकर,
जो अक्सर कहते थे उनको छाँव बचानी है।
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लोग काँटों से डरा करते हैं
जाने क्यूँ बेबात गिला करते हैं
पर मुझे इनसे कोई बैर नही
ख़ुशी क़ुबूल गम भी गैर नही
इतने भी बदसूरत नही होते
इन्हें समझने को चाहिए
उपयोगिता की परख
और एक गहरा नजरिया,
जो बहुत मुश्किल है
इधर सम्भालते उधर से छूट जाता है
आइना हाथ से फिसल के टूट जाता है
बहुत की कोशिशें सम्भल सकें,हम भी तो कभी
पर ये नसीब तो पल-भर में रूठ जाता है
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आज भी
खिलखिलाती है ज़िन्दगी
गुनकर जो रंग ,
बुनकर सा हृदय आज भी
बुन लेता है
अभिरामिक शब्दों को
आमंजु अभिधा में ऐसे ,
जैसे तुम्हारी कविता
मेरे हृदय में स्थापित होती है ,
अनुश्रुति सी ,अपने
अथक प्रयत्न के उपरान्त !!
हाँ ..... आज भी ...
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माँ साथ है जो अपने, तो बचपना है कायम,
माँ का दुलार ऐसा, के घास हो मुलायम,
माँ के बिना तो जीना, लगता है खाली, खाली,
माँ रंग है फागुन का, माँ से खिले दिवाली।
माँ ने हमें है पाला है, बड़े प्यार से, जतन से ,
हर दर्द मिट गया है, माँ की मधुर छुअन से।
माँ है नदी शहद की, माँ नील सा गगन है,
माँ शब्द तुमको मेरा, हर बार ही नमन है।
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आज बस यहीं तक
फिर मिलेंगे अगले सोमवार।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
बहुत ही सुंदर सराहनीय प्रस्तुति आदरणीय सर जी
जवाब देंहटाएंशानदार प्रस्तुती |आभार सहित धन्यवाद मेरी रचना शामिल करने के लिए |
जवाब देंहटाएंआभार रवीन्द्र जी।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार, सुन्दर प्रस्तुति एवं संकलन, असंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति सराहनीय लिंक्स
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट लिंको के साथ लाजवाब चर्चा प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को यहाँ स्थान देने हेतु हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार आपका।
"अब ज़रूरत है चित्त और चेतना को बदलने की।"बहुत ही सुंदर विचारणीय भूमिका के साथ बेहतरीन प्रस्तुति,सादर नमन सर
जवाब देंहटाएंबहुत ही सार्थक चर्चा,बधाई आपको
जवाब देंहटाएंसुंदर सराहनीय भूमिका के साथ बेहतरीन प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंउपयोगी लिंकों के साथ सुन्दर चर्चा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआपका आभार आदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी।