सादर अभिवादन ।
शुक्रवार की प्रस्तुति में आप सभी विद्वजनों का हार्दिक स्वागत एवं अभिनन्दन । आज की चर्चा
का आरम्भ स्मृति शेष रामकुमार वर्मा की कलम से निसृत "मौन करुणा " कविता के कवितांश से-
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ,
जानता हूँ इस जगत में फूल की है आयु कितनी,
और यौवन की उभरती साँस में है वायु कितनी,
इसलिए आकाश का विस्तार सारा चाहता हूँ,
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ,
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आइए अब बढ़ते है प्रस्तुति के
चयनित सूत्रों की ओर --
--चयनित सूत्रों की ओर --
शिष्ट मधुर व्यवहार, बहुत अच्छा लगता है।
सपनों का संसार, बहुत अच्छा लगता है।।
फूहड़पन के वस्त्र, बुरे सबको लगते हैं,
जंग लगे से शस्त्र, बुरे सबको लगते हैं,
स्वाभाविक शृंगार, बहुत अच्छा लगता है।
सपनों का संसार, बहुत अच्छा लगता है।।
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शज़र-ए-हयात की शाख़ पर
कुछ स्याह कुछ संगमरमरी
यादों का पपीहा।
खट्टे मीठे फल चखता गीत सुनाता
उड़-उड़ इधर-उधर फुदकता
यादों का पपीहा।
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बारिश से
बारिश, आज ज़रा जम के बरसना,
उन काँपती बूढ़ी हथेलियों में
थोड़ी देर के लिए ठहर जाना,
बहुत दिन हुए,
उन झुर्रियों को किसी ने छुआ नहीं है.
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दंगाई का भी तो हक़ है जो जी चाहे करने दो ।
उसके काम न आड़े आओ कफ़न सभी का सीने दो।।
सदियों से उसके पुरखों ने मुल्क को अपनी ख़िदमत दी ।
भेद-भाव के बिना सभी को लूटा और फ़क़ीरी दी।।
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विचित्र खेल है परंतु खेलते जाना
खेलने वाला हर व्यक्ति विजेता कहलाना है।
आम आदमी को मौलिकता का चश्मा लगाना
मिथ्या की बेल पर यथार्थ को चढ़ाते जाना है।
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"नशा" भी एक मनोरोग ही है।इस बात को डॉक्टर भी मानते है।इसमें भी तो इंसान अपना मानसिक संतुलन खो ही देता है न।यदि उसका अपने दिलों-दिमाग पर कंट्रोल होता तो मुझे नहीं लगता कि-कोई भी अपने मौत को आमंत्रण भेजता। यदि कोई व्यक्ति "पागल "हो जाता है यानि किसी भी तरह से अपना मानसिक संतुलन खो देता है ।
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प्रश्नों की भाषा
स्वरों के आरोह अवरोह
उछाले गए प्रश्नों की शैली और अंदाज़
वाणी की मृदुता या तीव्रता
रिश्तों के स्वास्थ्य को बनाने
या बिगाड़ने में बड़ी अहम्
भूमिका निभाते हैं !
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एक बार यदि रुककर कोई
क्षण में सहज प्रवेश करेगा,
कालातीत असीम सत्य का
निश्चय ही सन्देश सुनेगा !
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रग-रग में दौड़ा मौसम
रहा न मन अनाड़ी
मौसम का है खेल सब
हम ठहरे इसके खिलाड़ी।
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हस्तिनापुर हो या मुम्बई, वही
कुरुवंशियों की है बिसात,
अदृश्य चक्र में घूमता
है जीवन, किन्तु
अब नहीं होते
भालों से
बचाने
वाले हाथ । आँखों में पट्टियाँ -
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स्त्री वसुंधरा होती है
जब मुझे स्त्री नहीं देह समझ मेरा वजूद आंका जाता है
जब स्त्रियों के हँसने से उन के चरित्र का आंकलन होता हैं
इज्जत के नाम पर दो गज घूंघट डालने को कहा जाता है
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अरुण दा अब हमारे बीच नहीं रहें। कोरोना संक्रमण ने शोषित-उपेक्षित वर्ग के हक़-अधिकार के लिए ताउम्र संघर्ष करने वाले इस सादगी पसंद राजनेता को जिस दिन अपने गिरफ़्त में लिया,उसी दिन यह आशंका गहरा गयी थी कि दादा का उसके खूनी पंजे से बचना संभव नहीं है।
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आपका दिन मंगलमय हो..
फिर मिलेंगे…
🙏🙏
"मीना भारद्वाज"
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बहुत सुंदर चर्चा।
जवाब देंहटाएंबुद्ध जैसी करुणा जिस दिन हम मनुष्यों में आ जाएगी, उस दिन निश्चित ही मानव का यह क्षणभंगुर जीवन विराट हो जाएगा।
मेरी रचना 'औक़ात' को मंच पर स्थान देने के लिए हृदय से आभार मीना दीदी जी।🙏
पठनीय लिंकों के साथ सुन्दर चर्चा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआपका आभार आदरणीया मीना भारद्वाज जी।
बहुत सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसुन्दर चर्चा. मेरी कविताएँ शामिल कीं. शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंआपका आभार मीना जी मेरी रचना शामिल करने के लिए
जवाब देंहटाएंपठनीय लिंको के साथ सुन्दर चर्चा प्रस्तुति
मौन करुणा का आधार ... इस सुंदर रचना से आरम्भ हुई चर्चा सदा की तरह पढ़ने का काफी सामान लेकर आयी है, आभार मीना जी 'मन पाए विश्राम जहाँ' को स्थान देने हेतु !
जवाब देंहटाएंवाह ! बहुत ही सुन्दर सार्थक सूत्रों का संयोजन आज के चर्चामंच में ! मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार मीना जी ! सप्रेम वन्दे !
जवाब देंहटाएंVery nice
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंप्रत्येक लिंक महत्वपूर्ण....
जवाब देंहटाएंअच्छी चर्चा प्रस्तुति हेतु बधाई
आपका आभार, नमन सह।
जवाब देंहटाएंसराहनीय भूमिका के साथ बहुत ही सुंदर प्रस्तुति। मेरी रचना को स्थान देने के लिए सादर आभार।
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत ही सुंदर भूमिका के साथ सराहनीय प्रस्तुति,मेरी रचना को स्थान देने के लिए हृदयतल से आभार मीना जी,सादर नमन
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