शुक्रवार की देखिए, चर्चा को श्रीमान।
सारे पाठकवृन्द को, करता हूँ प्रणाम।।
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उमड़-घुमड़ कर जल बरसाओ।।
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सबसे प्यारी है मुझे, तेरी इक मुस्कान।
इसको पाने के लिए, जपता तेरा नाम।।
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जब से मैंने चलना सीखा।
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कैसे होगा ठीक अब, नाभि का टल जाना।
बतलाए उपचार जो, उनको ही अपनाना।।
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पनप रहा मस्तिष्क में, विचारों का जीवन चक्र।
कभी सरल है और कभी हो जाता है वक्र।।
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मैं अपना आज-कल सबकुछ तुम्हारे नाम करता हूँ।।
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मुझसे जो शख्स मिला सिर्फ़ बेवफ़ा मिला
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"मोहब्बत " हो गयी उनसे, यही है वन्दना मेरी।
लगाई आस जो तुमसे, कभी हो बन्द ना मेरी।।
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जब इश्क तुम्हे हो जाएगा, तब दिल की लगी को जानोगे।
है मुझको यकीं ऐ जाने वफा, इक रोज मुझे पहचानोंगे।।
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पता नही क्यों, किनारा कर जाते हैं लोग।
अपना कह कर क्यों दगा कर जाते हैं लोग।।
इस क्यों का मिलता नहीं, कुछ भी नहीं ज़वाब।
फिर भी मनवा देखता, सुन्दर-सुन्दर ख्वाब।।
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मनुष्य के जीवन के दिन सिर्फ चार होते हैं।।
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कहे-सुने को माफ कीजिए।।
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ममता का बहता दरिया क्यों रुक गया??
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क्या इसी का नाम जीवन है कहाता।
रहम कर बन्दों पे अब तो ऐ विधाता।।
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रहा नहीं कुछ इसमे बाकी।।
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मुस्कुरा कर कहा उसने एक बार जो,
सुनते ही दिल मेरा बाग-बाग हो गया.
कोई और चाह न रही मन में,
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बरबाद चमन को करने को,
बस एक ही उल्लू काफी है, हर शाख पे उल्लू बैठा है . अन्जामें गुलिस्ताँ क्या होगा। |
आज के लिए बस इतना ही!
शुक्रवार को फिर मिलूँगा! |
चर्चा का यह अंदाज अच्छा लगा ..!
ReplyDeleteआपके स्तर और व्यक्तित्व के अनुरूप ही बेहतरीन और यादगार चर्चा बधाई आभार ।
ReplyDeleteमेरे लेख को चर्चा मंच में जगह देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद|
ReplyDeleteबेहतरीन चर्चा का यह अंदाज बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteकोख नोचते कुक्कुर-चीते -
ReplyDeleteशोक-वाटिका की ऐ सीते !
राम-लखन के तरकश रीते ||
जगह-जगह जंगल-ज्वाला , उठे धुआँ काला-काला|
प्रर्यावरण - प्रदूषण ने, खर - दूषण प्रतिपल पाला ||
कुम्भकरण-रावण जीते -
राम-लखन के तरकश रीते||
नदियों में मिलते नाले, मानव-मळ मुर्दे डाले |
'विकसित' की आपाधापी, बुद्धि पर लगते ताले||
भाष्य बांचते भगवत-गीते -
राम-लखन के तरकश रीते||
पनपे हरण - मरण उद्योग, योग - भोग - संयोग - रोग |
काम-क्रोध-मद-लोभ समेटे, भव-सागर में भटके लोग ||
मनु-नौका में लगा पलीते -
राम-लखन के तरकश रीते||
राग - द्वेष - ईर्ष्या फैले, हो रहे आज रिश्ते मैले |
पशुता भी चिल्लाये-चीखे, मानवता का दिल दहले ||
रक्त-बीज का रक्त न पीते -
राम-लखन के तरकश रीते||
राह - राह 'रविकर' रमता, मरी - मरी मिलती ममता |
जगह-जगह जल्लाद जुनूनी, भ्रूण चूर्ण कर न थमता ||
कोख नोचते कुक्कुर-चीते -
राम-लखन के तरकश रीते ||
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varsh ke liye jo aagrah shastri ji aapne charcha manch se kiya hai bahut hi behtareen karya kiya hai.
ReplyDeletemeri kavita''एक उसी लम्हे का ख्याल रह गया..''ko charcha manch par sthan dene ke liye aabhar.anya links bhi aapke sanyojan me behtareen ban pade hain.
bhut hi sarthak charcha.....
ReplyDeletewaah
ReplyDeleteनए अंदाज़ में शानदार और सार्थक चर्चा!
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
चर्चा का नया रूप बहुत अच्छा लगा |मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार
ReplyDeleteआशा
चर्चा का यह बहुत बढिया अंदाज रहा .. अच्छे अच्छे लिंक्सों को भी समेटा है आपने .. आपनी कहानी के शीर्षक को को यहां शीर्षक के रूप में देखना अच्छा लगा !!
ReplyDeletekavitamayi chracha apane aap men jabarajast lagi ... meri post ko shamil karne ke liye hraday se abhari hun...abhaar
ReplyDeleteबेहतरीन चर्चा ... आभार ।
ReplyDeleteकवितामयी चर्चा मे आनन्द आ गया…………अभी तो सिर्फ़ आपका अन्दाज़ पढा है ………अब दिन भर आराम से लिंक्स पढेंगे जो देखने मे ही शानदार लग रहे हैं……………आभार्।
ReplyDeleteशास्त्री जी नमस्कार ..
ReplyDeleteबहुत मेहनत से दी गयी ..काव्यमयी सुंदर चर्चा ...!!
बहुत अच्छे लिंक्स हैं ...
आभार.
गर्मी को ठंढक में बदलने वाले लिनक्स
ReplyDeleteबहुत ही अच्छे लिंक्स के साथ बेहतरीन चर्चा ।
ReplyDeleteकवितानुमा चर्चा है या चर्चा नुमा कविता ...
ReplyDeleteबेहतर है यह अंदाज़ भी !
आपकी चर्चा का यह नया रंग भी बेहतर लगा । आपकी चर्चा की सबसे आपकी निष्पक्षता हैं । लिँक्स का चयन करते समय आप केवल सामग्री की गुणवत्ता मात्र देखते हैं जो कि पाठक को यह विश्वास दिलाती है कि लेख उपयोगी होगा ।
ReplyDeleteचर्चामंच की बढ़ती लोकप्रियता का राज़ यही है।
धन्यवाद !
चर्चा का यह अंदाज बहुत ही प्यारा है।
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रहस्यम आग...
ब्लॉग-मैन हैं पाबला जी...
अच्छी काव्यमय प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सुन्दर चर्चा और बहुत उम्दा लिंक्स |
ReplyDeleteवाह क्या कहने !!!
ReplyDeleteएक अलग ही अंदाज की शायरी है आपकी शास्त्री जी ...
मशाअल्लाह ..क्या अंदाजे -बया है ...
"जब इश्क तुम्हे हो जाएगा, तब दिल की लगी को जानोगे। है मुझको यकीं ऐ जाने वफा, इक रोज मुझे पहचानोंगे।।" क्या बात है ?
बहुत रोचक चर्चा...सुन्दर लिंक्स..आभार
ReplyDeleteबहुत रोचक चर्चा...सुन्दर लिंक्स..आभार
ReplyDeleteआदरणीय डॉ . रूपचंद जी सप्रेम साहित्याभिवादन ...
ReplyDeleteआज का चर्चा मंच प्रसंसनीय है ,चर्चा मंच में मुझे शामिल कर मेरे कविता की और शोभा को बढाने के लिए हार्दिक आभार ...आपका स्नेह बना रहे गुरु देव ...
आज का चर्चा मंच एक कविता की तरह सजा है जिसमे पता ही नहीं चलता की हम किस कवि की रचना का अध्ययन कर रहे हैं ,प्रसंसनीय ...बहुत सुन्दर ...हार्दिक बधाई ...
ReplyDeleteडॉ.साहब, काव्यमय चर्चा और मंचासीन आप। क्या बात है! बहुत खूब, बहुत सुन्दर, बिलकुल नई शैली में। इस मंच पर आलोचना और आलोचना- धर्मिता की चर्चा के लिए आपको हार्दिक साधुवाद।
ReplyDeleteशास्त्री जी नमस्कार,मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार बहुत सुन्दर,हार्दिक बधाई
ReplyDeleteआज की विस्तृत चर्चा और उस पर आपकी काव्यात्मक टिप्पणीयां ..चर्चा को चार चाँद लगा रही हैं ..बहुत अच्छी लगी आज की प्रस्तुति ..आभार
ReplyDeletekaavyaatmak charcha padh kar maja aa gaya.
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