नमस्कार , एक बार फिर ले आई हूँ मंगलवार की साप्ताहिक काव्य चर्चा …सोचा था कि इस बार छोटी चर्चा करुँगी …जिससे सब लोंग सारे लिंक्स तक पहुँच सकें ..लेकिन ज्यों ज्यों कविताएँ पढ़ती गयी मेरी चर्चा विस्तृत आकार लेती गयी ..खैर फिर भी एक विश्वास है कि सुधि-पाठक नए लोगों का निरंतर उत्साह वर्धन करेंगे ..और लीजिए चर्चा का प्रारम्भ भी करते हैं विश्वास की ही बात लेकर .. |
![]()
|
![]() कहना उनसे ज़रा घूंघट तो उठाएं मोहिनी मूरत तो दिखाएं आखिर अपनों से कैसी पर्दादारी? |
कैटरपिलर! / तुम प्रतीक हो / बेबस बेचारों के, / मोहताज़ मज़दूरों, / लाचारों के। हे श्रमजीवी! / करके तैयार, / रंग-विरंगे वस्त्रों का, / रेशमी संसार। / तुम मिटते हो, पटते हो, / जैसे नींव में पत्थर। |
धूप-किरणों के पखेरूगांव के पीछे पहाड़ी परधूप किरणों के पखेरू चुग रहे होंगे विजन के बीज। लौटते होंगे तराई से आदिवासी औरतों के भीड़-मेले टोकरों में लिये कोई चीज़। |
![]() विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष - "बसंत"कविता में ,गीत में, बसंत नजर आता है. अब तो बसंत का बस ,अंत नजर आता है. जंगल का नाश हुआ , गायब पलाश हुआ सेमल ने दम तोडा , आम भी निराश हुआ. चोट लगी वृक्षों को, घायल आकाश हुआ. बदल भी रो न सका , इतना हताश हुआ आधुनिक शहर दिक्-दिगंत नजर आता है. अब तो बसंत का बस , अंत नजर आता है. |
![]() हर लाठी जो सत्याग्रह पर चलती,गांधी को लगती है.इतिहास साक्षी है इसका ,सत्ता की लाठी से अक्सर, जागा करता है शेष-नाग, होकर, पहले से और प्रखर . पर, हर भ्रष्टाचारी खुद को, बस अपराजेय समझता है. लाठी-बंदूकों के बल पर उठ कर, मिट्टी में मिलता है. |
![]() चीड़ के जंगल खड़े थे देखते लाचार से गोलियाँ चलती रहीं इस पार से उस पार से मिट गया इक नौजवां कल फिर वतन के वास्ते चीख तक उट्ठी नहीं इक भी किसी अखबार से |
![]() जिंदगी के इस सफर में, फिर नया आगाज कर ले। दब गयी जो साँस मन में, एक नयी आवाज भर ले। |
![]()
![]() दोपहर की चिलचिलाती धूप में चारों तरफ पसरा हुआ है सन्नाटा . |
![]() रचना से रचित का सफ़र तय करती है बड़ी ही तन्मयता से , … |
![]() वह गुम है, मगर उसे स्वयं की गुमशुदगी का एहसास ही नहीं है. वह अक्सर घर से निकलता है खुद की बजाय किसी और की तलाश में. |
जब उसने कायनात बनायीं बनायीं ये धरती, पेड़ पौधे , पशु पक्षी और बनाया आसमान लाखों करोड़ों जीव बनाये और सबका सिरमौर बनाया ये इंसान , |
![]() मेरा सोचा तुम सुन लो कब होता है , मेरा चाहा तुम चुन लो कब होता है , हम दो अलग-अलग राहों पर चलते हैं , हमराही बन साथ चलें कब होता है ! |
एक करवट बदलती हूँ, जैसे पन्ने कोई पलटती हूँ जाने कितने पन्ने बाकी है अब भी? तेरे नाम वाली किताब कौन सिरहाने रख जाता है. |
![]() अपने ये दोनों हाथ दुआ में समेट कर, माँगा है उसे टूटते तारे को देख कर, कुछ शब्द सजाये हैं मैंने एक एक कर, नाखून से खुद अपने जिगर को कुरेद कर. |
जीवन तू सागर न बन सागर हर वस्तु से खेलता जिधर का रुख उधर धकेलता पर मेरी नौका के आगे सागर बेबस हो जाता है |
![]() जनता के सर पड़ता रोज हथौड़ा है | लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है | कहीं का पत्थर और कहीं का रोड़ा है | भानमती ने अच्छा कुनबा जोड़ा है | मनमोहन तो ताक धिना धिन नाचे हैं , दिल्ली - महारानी का सीना चौड़ा है | यू पी ने हर राज्य को पीछे छोड़ा है | लोकराज में जो हो जाये थोड़ा है | |
कौन कहता है कि प्यार, सिर्फ एक बार होता है। ये तो इक एहसास है जो, बार-बार होता है। इसके लिए कोई सरहद कैसी, ये तो बेख्तियार होता है, |
![]() तेरी जुदाई का ऐसा मातम रहा, ता-ज़िन्दगी दूर मुझसे हर गम रहा। मंज़िल मेरी तेरी ज़ुल्फ़ों के गांव में, दिल के सफ़र में बहुत पेचो-ख़म रहा। |
भेड़िया आया, भेड़िया आया पहले आता था कभी-कभी जंगलों से रिहायशी इलाके में लेकिन बना लिया आशियाना कंक्रीट के जंगलों में |
हमें आता है अब इस ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा कहना यहाँ मिल जाये कुछ मस्ती उसे ही मयकदा कहना चला हूँ मैं तो बस इक बूँद लेकिर मापने सागर तू अब सारे किनारों को ही मेरी अलविदा कहना |
![]() इन्तहां दिखाऊं तुझे आ अपने शौक़ की मैं इन्तहां दिखाऊं तुझे, तुझसे बावस्ता नज़र में जहां दिखाऊं तुझे. चल मेरे साथ चमन में, गुलों से मिलवाऊं, खुदाई मरती है तुझ पे, समां दिखाऊं तुझे. |
शब्द सारे नि:शब्द हैं , स्वर सभी खामोश हैं , भावनाएं अवाक हैं , आत्मा भी स्तब्ध है , ये कैसी आज़ादी , ये कैसा देशप्रेम है ! प्रशासन के विकृत , आतंक के सामने , निर्जीव हर तंत्र है , |
![]() रुंधे हुए गले का जवाब तंगहाली की वो आइसक्रीम चन्द रुपयों के वो तरबूज किसी गली के नुक्कड़ की वो चाट सुबह- सुबह पूड़ी और जलेबी की तेरी फरमाइश मुझे आज भी याद है कैसे भूल जाऊं |
पेड़ पर गिद्ध भले ही लुप्त हो रहे हों, पर उनकी उर्जा, धरती के गिद्धों को लगातार स्थानांतरित हो रही है |
![]() खूब उलीचा दुख न हुआ कम समन्दर –सा। 0 चंचल मन उड़ने को व्याकुल इक पंछी-सा। |
![]() मौसमों की मार किस पर नहीं पड़ती है सर्दी में सर्दी और गर्मी में लू किसे नहीं लगती है लेखन की दुनिया में लोग बेशुमार देखे। अपनी-अपनी आदतों से बेज़ार देखे। कुछ की गर्मी उनकी बातों में छलकती है, कुछ की नरमी उनके शब्दों में ढलती है। |
बड़े भले लगते हैं जब करते हैं हमारे लिए संघर्ष दे रहे होते हैं आश्वासन |
![]() तू मेरे प्रथम -ज्ञान की प्रतिमा तेरे स्फुलिंग मेरी ज्योति जली. देखा जगत को अग्नि में जलते क्या 'यश' मेरी भी जल जाएगी? |
![]() मैं नहीं हूँ प्यास का मारा हुआ मृग, |
![]() किसके जीवन में कभी ऐसा हुवा है साथ खुशियों के रुलाता गम नही है बन गया मोती जो तेरा हाथ लग के अश्क होगा वो कोई शबनम नही है |
उस रात गहरी तनहाई में शहनाईयों के शोर से टूट ऐसे बेसुध पड़ा रहा बिस्तर पर मैं... |
आज बस इतना सारा ही …आशा है आपको रचनाएँ पसंद आएँगी …आभार पाठकों का जो दिए हुए लिंक्स पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं ..जिससे हमें भी चर्चा करने की प्रेरणा मिलती है …आपकी प्रतिक्रिया और सुझाव हमेशा उत्साहित करते हैं … फिर मिलते हैं अगले मंगलवार को नयी चर्चा के साथ …बताइयेगा कि आज की बगिया के कौनसे फ़ूल ज्यादा सुन्दर लगे :):) …नमस्कार … संगीता स्वरुप |
बेहद खूबसूरती से .. बेहद संजीदगी से सजाया गया साप्ताहिक काव्य मंच.
जवाब देंहटाएंसंगीताजी..... बहुत सुंदर साप्ताहिक काव्य चर्चा ...... आभार
जवाब देंहटाएंवर्तमान परिपेक्ष्य में की गई शानदार चर्चा!
जवाब देंहटाएंआभार!
संगीता जी, सदाबहार चर्चा के लिये आपका धन्यवाद ! आज का काव्य मंच बेहद आकर्षक लग रहा है ! इतने अच्छे लिंक्स पाठकों तक पहुंचाने के लिये आपका आभार ! मुझे भी आपने इसमें स्थान दिया शुक्रगुजार हूँ !
जवाब देंहटाएंआज के संदर्भ में कई लिंक्स लिए चर्चा बहुत अच्छी और सार्थक |बधाई
जवाब देंहटाएंआशा
माला में गुंथे इन पुष्पों की खुशबू विभोर करती है ..
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह लाजवाब ...
सुन्दरता , रोचकता , गंभीरता और नयेपन से सजी चर्चा .....आपका आभार
जवाब देंहटाएंसुँदर पुष्पों से गुंथी हुई काव्य माला . आभार .
जवाब देंहटाएंशानदार चर्चा
जवाब देंहटाएंआपके माध्यम से कई सुन्दर रचनायें पढ़ने को मिलीं।
जवाब देंहटाएंसंगीता दी ,
जवाब देंहटाएंमुझे भी शामिल किया आभार !
सब को पढ़ कर शाम तक फ़िर आती हूँ....सादर !
कला मंच की सफलता "मंच-संचालक" पर, रंग मंच की सफलता "सूत्रधार" के कौशल पर निर्भर करती है.चर्चा-मंच में आपके संयोजन पर प्रस्तुत हैं नीरज जी की पंक्तियाँ :-
जवाब देंहटाएंशब्द तो एक शोर है , तमाशा है
भावना के सिन्धु में बताशा है
मर्म की बात अधरों से न कहो
मौन ही तो भावना की भाषा है.
श्रद्धेय,
जवाब देंहटाएंशामिल करने के लिए आभार
सुन्दर लिंक्स ,अच्छी चर्चा। मेरी ग़ज़ल को स्थान देने के लिये आपका आभार।
जवाब देंहटाएंसंगीता स्वरूप जी
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच की अकेली ऐसी चर्चाकार हैं,
जिनकी ऊर्जा कभी क्षीण नहीं होती
और नए से लेकर पुराने तक,
सभी रचनाकार उनसे प्रेरणा पाते हैं!
--
उनका श्रम चर्चा देखते ही झलक-झलक पड़ता है!
अलग-अलग तरह के मोतियों को एक माला में जोडऩे के लिए आभार संगीता जी, नए रचनाकारों को इससे उत्साह मिलता है, मेरी छोट सी कविता को शामिल करने के लिए धन्यवाद.........
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा चर्चा...सभी लिंक्स पर यहीं से गये. आभार.
जवाब देंहटाएंआदरणीया संगीता जी ,
जवाब देंहटाएंप्रणाम स्वीकारें
बहुत ही सुन्दर ढंग से आपने आज का काव्य मंच - चर्चा मंच सजाया है | प्रस्तुति आकर्षक और लिंक्स बहुत अच्छे हैं | मेरी कविता को आपने स्थान दिया , आभार व्यक्त करता हूँ |
बहुत सुन्दर और सुगठित लिंक्स से सुसज्जित चर्चा……………आभार्।
जवाब देंहटाएंआपकी चर्चा का तो जवाब ही नहीं..बहुत विस्तृत और बेहतरीन लिंक्सों से सजी सुंदर चर्चा..आभार।
जवाब देंहटाएंसंगीताजी..... .बहुत ही खूबसूरती से और प्यार से सजाया है ये मंच आप ने ……
जवाब देंहटाएंसंगीता जी-बहुत सुंदर साप्ताहिक काव्य चर्चा -सुन्दर लिंक्स.....आभार
जवाब देंहटाएंसंगीता जी! आपके द्वारा पिरोई गयी आज की भी मोतियों की माला अनमोल ही है।...बधाई
जवाब देंहटाएंश्रम से सजी खूबसूरत रूप मे अच्छी रचनाओ से परिचय करवाती चर्चा हेतु आभार
जवाब देंहटाएंसुंदर चर्चा
जवाब देंहटाएंअच्छे लिंक
मेरी कविता चुनने के लिए आभार
सुंदर चर्चा .. सभी लिंक पर जेया आया आज ... शुक्रिया मुझे भी शामिल करने का ...
जवाब देंहटाएंसंगीता जी ,
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी रचनाओं को पढने का मौका मिला आपके माध्यम से। आपकी मेहनत को नमन एवं आभार।
सुघड,सुन्दर, सधी हुई श्रम साध्य चर्चा.बहुत से लिंक मिले अभी जाते हैं एक एक करके.
जवाब देंहटाएंबड़े सुन्दर लिंक दिए आपने...
जवाब देंहटाएंबड़ा ही अच्छा लगा उनपर जाकर...
इस श्रम साध्य प्रयास के लिए आपका बहुत बहुत आभार...
संगीता जी, बेहद जतन से पूरे सप्ताह के बिखरे हुए मोती समेट कर एक ही माला में पिरोये हैं. अपनी से उनमे सुगंध भरी है.मेरी रचना का मान बढ़ाने के लिय आभार
जवाब देंहटाएंधन्यवाद और नमस्कार इस चर्चा में मेरी कविता सम्मिलित कर के लिए.
जवाब देंहटाएंअन्य सभी कवियों की कविताएँ रमणीय लगीं .
काफ़ी उत्कृष्ट लिंक्स से सुसज्जित आजके मंच से कविताओं की बारिश हो रही है। मेरे लिए तो देहरादून के इस गेस्ट हाउस में टाइम पास के लिए काफ़ी सारा पोस्ट मिल गया है। आभार आपका।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर चर्चा...लिंक्स बहुत अच्छे हैं....
जवाब देंहटाएंधन्यवाद...
सुंदर चर्चा, आभार!- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर संयोजन ,एवं प्रस्तुति ,पहली बार आना हुआ ,आपके लेखन की सार्थकता को जीवंत पाया ,स्वयं से परे दूसरों के बारे में सोचना अपने आप की अति सुंदर अभिव्यक्ति है.साधुवाद इस अथक प्रयास के लिए .और हार्दिक आभार मुझे इसमें शामिल करने के लिए .सभी के उत्साहवर्धन कुशल मंच सञ्चालन के लिए एक बार फिर से शुक्रिया
जवाब देंहटाएंआप सभी साहित्य-प्रेमी जनों को मेरा सदर नमस्कार..
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद इस चर्चा में मेरी भी एक छोटी सी कोशिश को शामिल करने के लिए..
बाकी सबको पढ़के एहसास हुआ कि अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है.. :)
बहुत सुंदर लिखा है हर एक ने.. :)
आप सभी के सहयोग का अभिलाषी..
--- आदित्य.