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शुक्रवार, नवंबर 28, 2014

"लड़ रहे यारो" (चर्चा मंच 1811)

आज की चर्चा आप सभी का हार्दिक स्वागत है।  प्रस्तुत है आज के कुछ चुनिन्दा लिंक्स। आरम्भ करते है एक सुन्दर ग़ज़ल से जो हमारे एक  मित्र ने मेल से भेजा है।
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लड़ रहे यारो
आचार्य रामदत्त मिश्रा "अनमोल" 
आज धोखाधड़ी के जोर बढ़ रहे यारो।
पक्ष ईमान के कमजोर पड़ रहे यारो।।

घूसखोरी हो, मिलाबट हो, या घुटाले हों,
भ्रष्ट-आचार अब हर ओर बढ़ रहे यारो।

फँसी पड़ी है हर सरकार खुद घुटालों में,
भ्रष्ट गठजोड़ अब जेलों में सड़ रहे यारो।

एक तो चोरी और दूसरे सीना जोरी,
चोर कोतवाल पर इल्ज़ाम मढ़ रहे यारो।

कोठियाँ बन रही हर तरफ फ़रेवों की,
और ईमान के घर उजड़ रहे यारो।

ख़ुदा के घर ही हैं संसार के मज़हब सारे,
ख़ुदा के नाम पर आपस में लड़ रहे यारो।

कौड़ियाँ व्योम के तारों में जा मिलीं देखो,
रत्न ‘अनमोल’ सब एडी रगड़ रहे यारो।

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यशोदा अग्रवाल 
वो सवा याद आये भुलाने के बाद
जिंदगी बढ़ गई ज़हर खाने के बाद

दिल सुलगता रहा आशियाने के बाद
आग ठंडी हुई इक ज़माने के बाद
मनजीत ठाकुर 
दक्षिण एशियाई देशों के संगठन-दक्षेस के शिखर सम्मेलन को कवर करने के लिए काठमांडू में हूं। काठमांडू हवाई अड्डे पर बुनियादी सुविधाओं की कमी है। वहां पर उकताए हुए किरानियों का जमावड़ा है, जो आपको सुविधाएं देने में आनाकानी करेंगे, कुछ वैसे ही जैसे भारतीय नौकरशाही को जनता को सुविधा मुहैया कराने में होता है।
सोमाली 
चल अकेला ही तू 
क्यों किसी के साथ की राह तकता है,
ये दुनिया मतलब की है,
हर कोई बस जरुरत तक ही साथ चलता है ,
हर मोड़ पर यहाँ नए हमसफ़र मिलेंगे,
हमदर्द न बना किसी को यहाँ ,
संघशील "सागर"
हमने उससे मोहब्बत की जिसके पास दिल नहीं था ।
ऐसे दरिया में कूंदे जिसका साहिल नहीं था ।।
हमने ज़िन्दगी अपनी उसको समझा ।
जिसका प्यार भी मुझे हासिल नहीं था ।।
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प्रीति स्नेह 
कहते हैं सम्मान करते हैं 
बहुत ऊँचा एक स्थान दिया है 
पुरुष देता है यूँ देवी नाम 
या समझते खेलने की वस्तु तमाम
उदय वीर सिंह 
पकड़ हाथ फिर छोड़ चले
दिल के तुम व्यापारी थे -
नफ़ा-नुकसान तुम्हारी भाषा
हम तो प्रीत दरबारी थे -
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मृदुला प्रधान

        ये अस्सी साला अौरतें ....... 
तनी हुई गर्दन,
दमकता हुआ ललाट ,
उभरी हुई नसें……और 
संस्कारों के गरिमा की 
ऊर्जा लिये,
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रेवा जी 
पड़ा था कफ़न मे लिपटा
चार कन्धों पर जाने को तैयार ,
रो रहे थे सारे अपने
पर वो था इन सब से अनजान ,
सजा धजा कर
कर रहे थे तैयारी ,
निकलनी थी आज
प्रवीण चोपड़ा 
आज बहुत वर्षों बाद शायद इस विषय पर हिंदी में लिख रहा हूं कि जुबान साफ़ रखना माउथवाश से भी ज़्यादा फायदेमंद है। अभी मैंने इस ब्लॉग को सर्च किया तो पाया कि कईं वर्ष पहले एक लेख लिखा था...सांस की दुर्गंध परेशानी। आप इसे इस िलंक पर जा कर देख सकते हैं।
देवमणि पांडेय
कभी रातों को वो जागे कभी बेज़ार हो जाए
करिश्मा हो कोई ऐसा उसे भी प्यार हो जाए

मेरे मालिक अता कर दे मुझे तौफ़ीक़ कुछ ऐसी
ज़बां से कुछ नहीं बोलूँ मगर इज़हार हो जाए
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आशा शर्मा 
चल खुद के लिय जिया जाये
बहुत जी लिए दुनियां के लिय
अभी भी कुछ लम्हें हैं हम दोनों के पास
कहीं फिर रंज न रह जाये
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यादें

कैलाश शर्मा 

कल खरोंची उँगलियों से
दीवारों पर जमी यादों की परतें,
हो गयीं घायल उंगलियाँ
रिसने लगा खून
अनीता जी 
चिदाकाश ही शून्य है, वहाँ प्रकाश भी नहीं है, रंग भी नहीं, ध्वनि भी नहीं, बल्कि इसे देखने वाला शुद्ध चैतन्य है जो आकाश की तरह अनंत है और मुक्त है. जो कुछ भी हम देखते या अनुभव करते हैं सब क्षणिक है नष्ट होने वाला है पर वह चेतना सदा एक सी है, अविनाशी है. मृत्यु के बाद भी उसका अनुभव होता है
विशाल सर्राफ 
काजल कुमार 
मनोज कुमार 
मोबाइल फ़ोन और इंटरनेट की दुनिया ने आज हमारे लाइफ स्टाइल को बदल कर रख दिया है। आज हम हर तरफ से मोबाइल, इंटरनेट से घिरे हुए हैं, सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने तो मानो जैसे हमको पूरी तरह से अपने वश में कर लिया हो. खासकर की युवा वर्ग के 
संजीव वर्मा 'सलिल'
'मैं'-'मैं' मिल जब 'हम' हुए, 'तुम' जा बैठा दूर.
जो न देख पाया रहा, आँखें रहते सूर..
*
'मैं' में 'तुम' जब हो गया, अपने आप विलीन.
व्याप गयी घर में खुशी, हर पल 'सलिल' नवीन.
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रेखा श्रीवास्तव 
ये दुकान महीने में सिर्फ 10 और 21 तारिख को ही खुलती हैं और इसमें सैकड़ों कार्ड जुड़े हुए हैं। इन लोगों को पता है कि मध्यम वर्गीय लोग राशन की दुकान में लाइन लगाने का समय नहीं रखते हैं सो
श्वेता रानी खत्री 
निर्भया काण्ड के बाद से हमारे सार्वजनिक जीवन में एक सकारात्मक बदलाव तो ज़रूर आया है. लिंगभेद लगभग जातिभेद और नस्लभेद के समानांतर राजनैतिक मुद्दा बन गया है. आजकल किसी सार्वजनिक हस्ती का जेंडर सेंसिटिव होना या कम से कम नज़र आना अनिवार्य है. पर इस बदलाव की बयार का सबसे बड़ा ख़तरा अपना फ़ोकस खो देने का है. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के वी.सी. पर एक बयान के बाद हुए शाब्दिक हमले ऐसे ही दिग्भ्रमित आक्रोश का एक उदाहरण है.
सुशील कुमार जोशी
एक नहीं 
कई बार 
कहा है तुझसे 
दिन में मत 
निकला कर 
निकल भी 
जाता है अगर
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"दोहे-जीवन पतँग समान" 
(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 

आसमान का है नहीं, कोई ओर न छोर।
जीवन पतँग समान है, कच्ची जिसकी डोर।।
--
अंधकार का रौशनी, नहीं निभाती साथ।
भोर-साँझ का खेल तो, सूरज के है हाथ।।...
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नोट: आज की चर्चा में कुछ नये ब्लोगरो को शामिल किया गया है जिनके ब्लॉगों पर बहुत कम ही लोग पहुँच पाते है। देखते हैं वे चर्चा मंच पर पहुँच पाते  हैं या नहीं। 
धन्यवाद,
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17 टिप्‍पणियां:

  1. सुप्रभात |
    उम्दा संकलन सूत्रों का |

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर लिंकों का संकलन।
    आपका बहुत-बहुत आभार आदरणीय राजेन्द्र कुमार जी।

    जवाब देंहटाएं
  3. सुंदर सूत्र संयोजन । 'उलूक' का आभार सूत्र 'इंसानियत तो बस एक मुद्दा हो ....... ' को आज की चर्चा में जगह देने के लिये

    जवाब देंहटाएं
  4. धन्यवाद जी....लिंक शेयर करने के लिए।

    जवाब देंहटाएं
  5. ढेर सारे विषयों की जानकारी देते श्रम से सजाये सूत्रों के लिए बहुत बहुत बधाई...आभार !

    जवाब देंहटाएं
  6. मेरी पोस्ट शामिल करने के लिए धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत बढ़िया चर्चा प्रस्तुति हेति आभार!

    जवाब देंहटाएं
  8. चर्चा मंच पर चुनिंदा रचनाओं की प्रस्तुति शानदार है। इस श्रेष्ठ काम के लिए बधाई।

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  9. सुन्दर चर्चा सार्थक सूत्र !

    जवाब देंहटाएं
  10. सुन्दर सूत्र संयोजन ……मेरी पोस्ट को जगह देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  11. बहुत सुन्दर सूत्र...रोचक चर्चा..आभार

    जवाब देंहटाएं
  12. मनोहर चर्चा, संयोजक महोदय को कोटिशः धन्यवाद।

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  13. सभी अच्छी पोस्टो का संकलन !
    शुक्रिया राजेन्द्र जी !

    जवाब देंहटाएं
  14. धन्यवाद ! राजेंद्र जी। मेरी पोस्ट शामिल करने के लिए।
    धन्यवाद इसलिए भी, अपना कीमती समय पोस्टो को संकलित करने में बिता देना।
    मेरी सोच मेरी मंजिल

    जवाब देंहटाएं

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