मित्रों।
बुधवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के निम्न लिंक।
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"चौदह दोहे-सहमा देश-समाज"
धरा-गगन में हो रहा, बेमौसम माहौल।
चपला करती गर्जना, बादल बोले बोल।।
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उमड़-घुमड़कर आ रहे, अब नभ में घनश्याम।
फसलों का भी हो गया, अब तो काम तमाम...
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जीवन निरझरणी
धवल लकीरों सी धाराएं
दूर पहाड़ी पर दीखतीं
मंथर गति से आगे बढ़तीं
चाल श्वेत सर्पिनी सी
ज्यों ज्यों आगे को बढ़तीं
आपसमें मिलती जातीं
जल प्रपात के रूप में ...
दूर पहाड़ी पर दीखतीं
मंथर गति से आगे बढ़तीं
चाल श्वेत सर्पिनी सी
ज्यों ज्यों आगे को बढ़तीं
आपसमें मिलती जातीं
जल प्रपात के रूप में ...
Akanksha पर Asha Saxena
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जा बेटी जा ...
जी ले अपनी ज़िन्दगी !!!
हो जाती हूँ कभी कभी बेहद परेशां
जब भी बेटी कहीं जाने को कहती है
और मेरी आँखों के आगे
एक विशालकाय मुखाकृति आ खड़ी होती है
जिसका कोई नाम नहीं ,
पहचान नहीं , आकृति नहीं
लेकिन फिर भी उसकी उपस्थिति
मेरी भयाक्रांत आँखों में दर्ज होती है...
vandana gupta
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एक ग़ज़ल
दो दिल की दूरियों को...
रात दिन साथ मिलकर चले किसलिये ,
फिर भी बढ़ते रहे फासिले किसलिये !
उम्र भर जब अकेला था रहना हमें ,
फिर बनाते रहे काफिले किसलिये...
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जब खो जाते हैं शब्द...!
जब
खो जाते हैं शब्द...
तब भी
चलता ही है जीवन...
जो कभी
टूट भी जाए
संवादों का पुल...
तब भी
जुड़े ही रहते हैं
जो जुड़े हुए थे मन...
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सुप्रभात
जवाब देंहटाएंपढ़ने के लिए यथेष्ट सामग्री |
मेरी रचना शामिल करने के लिए धन्यवाद सर |
बहुत सुंदर बुधवारीय अंक । आज की चर्चा में 'उलूक' के सूत्र '‘उलूक’ क्या है? नहीं पढ़ने वाला भी
जवाब देंहटाएंअब जानने चला है' को स्थान देने के लिये आभार आदरणीय शास्त्री जी ।
सप्ताह भर पढ़ने के लिए पर्याप्त सामग्री॥ आभार काव्यसुधा को शामिल करने के लिए ...
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंsundar charcha....shukriya.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया चर्चा प्रस्तुति हेतु आभार!
जवाब देंहटाएंमेरी पोस्ट को चर्चा में सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद, आपकी इस मेहनत और जज़्बे को सलाम रूपचन्द्र शास्त्री जी
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