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रविवार, अप्रैल 26, 2015

"नासमझी के कारण ही किस्मत जाती फूट" (चर्चा अंक-1957)

मित्रों।
रविवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
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गीत "अमलतास के पीले गजरे" 

अमलतास के पीले गजरेझूमर से लहराते हैं।
लू के गर्म थपेड़े खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं।।

ये मौसम की मार, हमेशा खुश हो कर सहते हैं,
दोपहरी में क्लान्त पथिक को, छाया देते रहते हैं,
सूरज की भट्टी में तपकर, कंचन से हो जाते हैं।
लू के गर्म थपेड़े खाकर भी, हँसते-मुस्काते हैं... 
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छाँव की तलाश में 

पतझड़ का मौसम के लिए चित्र परिणाम
Akanksha पर Asha Saxena 
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तेरा नाम 

Sudhinama पर sadhana vaid 
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लघुकथा 

तूलिकासदन पर सुधाकल्प 
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मिलते रहना यदा-कदा...! 

अनुशील पर अनुपमा पाठक 
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पतंग 

जब मेरी डोर किसी के हाथ में थी, 
मैं छटपटाती थी, 
मुक्ति के लिए. 
मैं दूर बादलों में उडूं, 
हवाओं के साथ दौडूँ, 
सूरज को ज़रा क़रीब से देखूं - 
इतना मेरे लिए काफ़ी नहीं था... 
कविताएँ पर Onkar 
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मिला दूध में नीर 

है पानी में दूध या, मिला दूध में नीर। 
बसा कौन है प्राण में, किसका व्यक्त शरीर... 
मनोरमा पर श्यामल सुमन 
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दो गज़ चादर

दो गज़ की चादर से बैर नहीं ,  
तो छटांक भर की टोपी से गुरेज़ कैसा?... 
ZEAL  
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प्रीत गा ले 

भावांकन पर Bhavana Tiwari 
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क्षणिकाएँ 

जिंदगी के थपेड़ों ने 
जब भी थका दिया मुझे 
आ बैठी मैं यादों के बरगद की छाँव में 
सहलाया मुझे यादों ने 
दे गईं मन को असीम सुकून... 
गुज़ारिश पर सरिता भाटिया 
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पागलपन 

साँसों में बसी हो तुम 
इसका इकरार क्या करना? 
मोहब्बत हो गयी तुमसे तो 
अब इनकार क्या करना... 
वंदे मातरम् पर abhishek shukla 
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