मित्रों!
सोमवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
--
"शिव का ध्यान लगाओ"
आई है शिव की शिवरात, हर-हर, बम-बम गाओ।
लेकर बेलपत्र को साथ, चलो प्रसाद चढ़ाओ।।
शंकर शमन करेंगे मन को,
वो ही वर देंगे सज्जन को,
जागो सारी रात, शिव का ध्यान लगाओ।
लेकर बेलपत्र को साथ, चलो प्रसाद चढ़ाओ...
--
काश, ऐसी खबरे बार-बार पढने मिले---!!!
भाग-3
*हाल* ही में हुए जाट आंदोलन के बाद दो बहुत अच्छी खबरें पढ़ी। इतनी अच्छी की मन कह रहा है सबको सुनाऊं। आप सोच रहे होंगे करोडों रुपए की संपती का नुकसान होने के बाद, इतने लोगों की जान जाने के बाद भी मैं कह रहीं हूं कि अच्छी खबरें! हां, अच्छी खबरें! क्योंकी जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई तो किसी भी हालात में नही हो सकती! लेकिन यदि ऐसी घटनाओं से हमने कुछ सबक लिए, आगे भविष्य में ऐसी घटनाएं न हो इसके इंतजाम किए तो क्या यह अच्छी खबरें नहीं है...
--
मार्क्सवादियों को तुम्हारे रूप में एक और बकरा मिल गया है।
तुम अपनी उस माँ को बेहद प्यार करते हो
जो आंगनवाड़ी में सेवा रत है।
भारत माँ से भी बेहद प्यार करते होगे कन्नू।
--
लहू गर हो बहुत गन्दा तो गद्दारी नहीं जाती
*पराये मुल्क से उसकी वफादारी नहीं जाती ।
लहू गर हो बहुत गन्दा तो गद्दारी नहीं जाती ।।
वतन के कातिलों से ये जमाना हो गया वाकिफ।
मगर क़ानून घायल हो तो लाचारी नही जाती...
तीखी कलम से पर
Naveen Mani Tripathi
--
--
'' तुम बिना '' नामक नवगीत ,
स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा के नवगीत संग्रह -
'' एक अक्षर और '' से लिया गया है -
मीत मन के गीत जैसे।
कल्पना कोमल कि तुम लय से मधुर हो ,
मीत , छवि के छन्द से भी तुम सुघर हो ,
मन्द्र स्वर ये श्लोक निर्झर - नीर - जैसे...
--
--
हार गया अपने ही रण
आज वेदना मुखर हो गयी, अनुपस्थित फिर भी कारण ।
जगत जीतने को आतुर पर, हार गया अपने ही रण ।।
ध्येय दृष्ट्य, उत्साहित तन मन,
लगन लगी थी, पग आतुर थे,
राह नापने, अनचीन्ही सी,
पथिक थके सब,
गर्वित मैं कुछ और बढ़ा जाता था,
अहंकार में तृप्त,
मुझे बस अपना जीवन ही भाता था ।
सीमित था मैं अपने मन में, छोड़ रहा था अपनापन ।
जगत जीतने को आतुर पर, हार गया अपने ही रण...
--
ज़ेरे-ख़ाक कर दे !
ज़ुबां-ए-होश को बेबाक कर दे सितमगर ! तू गरेबां चाक कर दे
करिश्मा यह भी करके देख ले तू कि मेरी रूह ज़ेरे-ख़ाक कर दे ...
--
--
--
--
एक ग़ज़ल :
यूँ तो तेरी गली से....
यूँ तो तेरी गली से , मैं बार बार गुज़रा
लेकिन हूँ जब भी गुज़रा ,मैं सोगवार गुज़रा
तुमको यकीं न होगा ,गर दाग़-ए-दिल दिखाऊँ
राहे-ए-सफ़र में कितना ,गर्द-ओ-गुबार गुज़रा...
--
--
--
--
--
खो गए हैं अब वो स्वप्निल से पल !
सभी कुछ तो है अपनी - अपनी जगह ,
सूरज चाँद सितारे बादल !
फिर ! क्या खोया है !
हाँ ! कुछ तो खोया है...
--
--
--
विचार नहीं छिपते
महाभारत काल की बात है अज्ञातवास में पांडव रूप बदलकर ब्राह्मणों के वेश में रहा करते थे , एक दिन रास्ते में उन्हें कुछ ब्राह्मण मिले वह राजा द्रुपद की बेटी द्रोपदी के स्वयंवर में जा रहे थे । पांडव भी उनके साथ चल पड़े , स्वयंवर में एक धनुष को झुका कर तीर से निशाना लगाना था वहां पर सभी राजाओं ने निशाना लगाना तो दूर धनुष को झुका भी नहीं सके । लेकिन अर्जुन ने धनुष को झुका दिया और लक्ष्य पर निशाना लगा दिया शर्त के अनुसार द्रोपदी का स्वयंवर अर्जुन के साथ हो गया...
TLMOM
--
उजाला
अंधेरों में उजाला ढूंढते हो
बहुत प्यासे हो ,प्याला ढूँढ़ते हो
ये सहरा है मगर खुशफ़हम हो
यहाँ आकर निवाला ढूँढ़ते हो...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
"चर्चामंच - हिंदी चिट्ठों का सूत्रधार" पर
केवल संयत और शालीन टिप्पणी ही प्रकाशित की जा सकेंगी! यदि आपकी टिप्पणी प्रकाशित न हो तो निराश न हों। कुछ टिप्पणियाँ स्पैम भी हो जाती है, जिन्हें यथा सम्भव प्रकाशित कर दिया जाता है।