मित्रों!
मंगलवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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"शिकवे-गिले मिटायें होली में"
दिल से दिल को आज मिलाएँ, रंगों की रंगोली में।
आओ शिकवे-गिले मिटायें, प्रीत बढ़ाएँ होली में।।
एक साल में एक बार यह पर्व सलोना आता है,
फाग-फुहारों के पड़ने से जुड़ता दिल से नाता है,
संगी-साथी को बैठाएँ, अरमानों की डोली में...
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तब और आज
...आज तुम चुप हो
आज मैं तोड़ नहीं पा रहा तुम्हारी चुप्पी
आज भी मन है कि भर लूँ तुम्हें बाँहों में
खींच लूँ अपने पास,
पर कर नहीं पाता
फर्क बस इतना है कि
तब तुम मेरे पास थी
बहुत आज,
बहुत दूर हो कहीं...
मानसी पर Manoshi Chatterjee
मानोशी चटर्जी
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दर्द ने कुछ यूँ निभाई दोस्ती
दर्द ने कुछ यूँ निभाई दोस्ती
झटक कर दामन खुशी रुखसत हुई
मोतियों की थी हमें चाहत बड़ी
आँसुओं की बाढ़ में बरकत हुई
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क्या होली की प्रासंगिकता समाप्त हो चुकी है-
होली के अवसर पर एक विचार --
डा श्याम गुप्त ...
क्या होली की प्रासंगिकता समाप्त हो चुकी है-होली के अवसर पर एक विचार ... पहले होली से हफ़्तों पहले गलियों बाज़ारों में निकलना कठिन हुआ करता था होली के रंगों के कारण | आज सभी होली के दिन आराम से आठ बजे सोकर उठते हैं, चाय-नाश्ता करके, दुकानों आदि पर बिक्री-धंधा करके, दस बजे सोचते हैं की चलो होली का दिन है खेल ही लिया जाय | कुछ पार्कों आदि में चंदे की राशि जुटाकर ठंडाई आदि पीकर रस्म मना ली जाती है और दो चार दोस्तों –पड़ोसियों को रस्मी गुलाल लगाकर,१२ बजे तक सब फुस्स...
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ढपोरशंख
भाषणबाजी में अव्वल,
करने धरने में शून्य अंक,
आज के नेता हो चले हैं,
जैसे कि ढपोरशंख ...
ई. प्रदीप कुमार साहनी
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मर्ज़
हवा न जाने कौन सी छू गयी मर्ज़ इश्क़ का हमको दे गयी
खिलते गुलाब सा मुखड़ा जैसे सौगात में हमें दे गयी...
RAAGDEVRAN पर MANOJ KAYAL
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21 मार्च 2016 .....
कभी मना कर रूठ जाते है वो
कभी यूँ भी रुठ कर मनाते है
जो हार जाये वो प्यार क्या
तकरार न हो इजहार क्या
नजरों से नजरें चुराते है वो
यूँ ही दिल में बस जाते है वो
न कुछ हारते हैं ,न जीतते है
प्यार ही प्यार में जिये जाते हैं ...
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चकित हूँ
घिर रहे आनन्द के कुछ मेघ नूतन,
सकल वातावरण शीतल हो रहा था ।
पक्षियों के कलरवों का मधुर गुञ्जन,
अत्यधिक उत्साह उत्सुक हो रहा था ...
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न बाँची गयी कविता
स्त्री होने से पहले
और स्त्री होने के बाद भी
बचती है एक अदद कविता मुझमे
अब बाँचनी है वो कविता
जिसमे मैं कहीं न होऊँ
फिर भी मिल जाऊँ
पेड़ों की छालों पर...
vandana gupta
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