मित्रों!
आदरणीय राजेन्द्र कुमार जी ने चर्चा मंच से
दो माह का अवकाश लिया हुआ है।
क्योंकि वे आबूधाबी से
भारत में अपने घर आये हुए हैं।
इसलिए शुक्रवार की चर्चा में देखिए
मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
रूठने मनाने में
उम्र गुजर जाती है
शाम कभी होती है
कभी धूप निकल आती है
चंद दिनों की खुशियों से
जिन्दगी सवर जाती है...
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बच्चों का ये है विद्यालय।
विद्याओं का ये है आलय।।
कितना सुन्दर सजा चमन है।
रंग-बिरंगे यहाँ सुमन हैं।।
कोरे कागज जैसे मन है।
चहक रहा कानन-उपवन है...
विद्याओं का ये है आलय।।
कितना सुन्दर सजा चमन है।
रंग-बिरंगे यहाँ सुमन हैं।।
कोरे कागज जैसे मन है।
चहक रहा कानन-उपवन है...
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हिसाब बराबर
ज़िंदगी मुझ पर तेरा अब क़र्ज़ कुछ बाकी नहीं
पूरी शिद्दत से निभाए फ़र्ज़ कुछ बाकी नहीं
भूल से जो रह गये दो चार देने से कभी
बदले में तूने दिए जो दर्द कुछ बाकी नहीं !
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दूर रहो मुझसे..
मैं मुहब्बत हूँ,
मेरी रूह से गुजर जाओ,
गर बदन को देखते हो,
दूर रहो मुझसे....
Anil kumar Singh
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मौत की खाई ...
पढ़ लिया लिख लिया सो गए
ख़्वाब में वो: ख़ुदा हो गए
कौन हैं लोग जो देस में
नफ़्रतों की फ़सल बो गए...
साझा आसमान पर
Suresh Swapnil
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ये आज पूछता है बसंत
डा श्याम गुप्त ...
क्यों रूठे रूठे वन-उपवन,
क्यों सहमी सहमी हैं कलियाँ |
भंवरे क्यों गाते करूण गीत,
क्यों फाग नहीं रचती धनिया |
ये रंग वसंती फीके से ,
है होली का भी हुलास नहीं |
क्यों गलियाँ सूनी-सूनी हैं,
क्यों जन-मन में उल्लास नहीं...
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