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सोमवार, मई 30, 2016

"संग में काफिला नहीं होता" (चर्चा अंक-2358)

मित्रों
सोमवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

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"संग में काफिला नहीं होता" 


बात का ग़र ग़िला नहीं होता
रार का सिलसिला नहीं होता

ग़र न ज़ज़्बात होते सीने में
दिल किसी से मिला नहीं होता

आम में ज़ायका नहीं आता
 वो अगर पिलपिला नहीं होता... 
उच्चारण पर रूपचन्द्र शास्त्री मयंक 
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जब तक तुम हो ...... 

आइना भी कितना दिलफरेब है 
ये तो बस चेहरा ही देखता है 
नज़रें मेरी तरस बरस कर
हर पल बस तुम्हे देखती हैं 
तुम दिख जाते हो न 
तभी तक ये आँखे देखती हैं... 
झरोख़ा पर निवेदिता श्रीवास्तव 
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चिन्तामणि जोशी की कविताएँ 

चिन्तामणि जोशी चिन्तामणि जोशी जन्म : 3 जुलाई 1967 , ग्राम - बड़ालू, पिथौरागढ (उत्तराखण्ड) शिक्षा : एम. ए. (अंग्रेजी), बी. एड. प्रकाशन : ‘दैनिक जागरण’, ‘अमर उजाला’, ‘कृति ओर’, ‘गाथांतर’, ‘अटूट बंधन’ तथा अन्य हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, लेख प्रकाशित प्रकाशित पुस्तक : ‘क्षितिज की ओर’ (कविता-संग्रह)- 2013 संपादन : ‘कुमांयू सूर्योदय’ साप्ताहिक -1986 ‘लोक विमर्श’ काव्य स्मारिका- 2015 सम्प्रति : अध्यापन कवि समाज का एक सजग सचेत प्रहरी होता है... 
पहली बार पर Santosh Chaturvedi 
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झूला बाहों का 

दाल पर झूलता बच्चा के लिए चित्र परिणाम
आई छुट्टी गर्मीं की 
कोई काम न धाम 
सड़क नाप बाग़ में पहुंचे 
थी झूले की तलाश... 
Akanksha पर Asha Saxena 
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यहां ड्यूटी पर सोने वाले को  

थप्पड़ पड़ता है ! 

इमारत का रूप तो बदल गया 
पर यहां कार्यरत लोग अभी भी 
बर्टन की मौजूदगी को 
उसके थप्पड़ों के कारण महसूस करते हैं।  
कुछ अलग सा पर गगन शर्मा 
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माइण्ड सेट 

पत्नी घर आज प्यारा बिटवा चला....... यह विदाई गीत बन जाये तो? नहीं पचा पाएंगे ना। हमें तो यही गीत सुनने की आदत है – पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली.....। इसी सोच से हमारा जीवन बना है। जन्म के साथ ही हमें घुट्टी में ये ही पिलाया गया है और इसे हम कहते हैं माइण्ड सेट। पोस्ट को पढ़ने के लिये ... 
smt. Ajit Gupta 
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एक गजल 

हाथ खाली हैं बिटिया सयानी हो गयी 
राजेश त्रिपाठी मुश्किलें हैं और जाने कितने अजाब हैं। 
जिंदगी की बस इतनी कहानी हो गयी... 
कविता मंच पर Rajesh Tripathi 
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मेट्रो में आज़ादी का सफ़र 

महिलाओं के खिलाफ हिंसा से जुड़ी तमाम खबरों, आंकड़ों, हकीकत के बीच औरतों की आजादी से जुड़ी यह एक सुंदर तस्वीर है। दिल्ली की मेट्रो में सफर करती महिलाओं की तस्वीर। मेट्रो स्टेशन पर तेज कदम के साथ वे दाखिल होती हैं। उनकी चाल में उनका आत्मविश्वास झलकता है। उनकी आंखों में सफलता की चमक है। उन तमाम लड़कियों के चेहरे पढ़िए, कुछ एक को छोड़ दें तो ज्यादातर मजबूत-आत्मनिर्भर लगती हैं। अपने बैग कंधे पर डाले वे आगे बढ़ती हैं। पहले बाजारों में लड़कियां-महिलाएं डरी-सहमी या चौकस सी ज्यादा दिखाई देती थीं। जैसे कभी भी कोई हादसा उनकी तरफ लपकता हुआ आ सकता है। उस सूरत में वह कुछ नहीं कर पाएंगी। उनकी मदद कोई नहीं करने आएगा... 
वर्षा  
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“फूल जंगल में खिले किन के लिए” 

नव सुहागिन या वियोगिन के लिए 
तारे टाँके रात ने किन के लिए 
नीतियों के संग होंगी रीतियाँ 
मैं चली हूँ आस के तिनके लिए... 
वाग्वैभव पर Vandana Ramasingh 
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1 टिप्पणी:

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