मार मजा रमजान में, क्या ढाका बगदाद।
क्या मजाल सरकार की, रोक सके उन्माद।
रोक सके उन्माद, फिदाइन होते हमले।
क्या ये लोकल लाश, यही पहचानो पहले।
फिर पकड़ो परिवार, बनाओ उनका कीमा।
निश्चय ही आतंक, पड़ेगा रविकर धीमा।।
|
दोहे "पागल बनते लोग" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
रूपचन्द्र शास्त्री मयंक
पागलपन में हो गयी, वाणी भी स्वच्छन्द।
लेकिन इसमें भी कहीं, होगा कुछ आनन्द।। -- पागलपन में सभी कुछ, होता बिल्कुल माफ। पागल को मिलता नहीं, कहीं कभी इंसाफ।। |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
"चर्चामंच - हिंदी चिट्ठों का सूत्रधार" पर
केवल संयत और शालीन टिप्पणी ही प्रकाशित की जा सकेंगी! यदि आपकी टिप्पणी प्रकाशित न हो तो निराश न हों। कुछ टिप्पणियाँ स्पैम भी हो जाती है, जिन्हें यथा सम्भव प्रकाशित कर दिया जाता है।