सुधि पाठकों!
बुधवार की चर्चा में
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
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गीत
"माला बन जाया करती है"
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जब कोई श्यामल सी बदली,
सपनों में छाया करती है!
तब होता है जन्म गीत का,
रचना बन जाया करती है!!
निर्धारित कुछ समय नही है,
कोई अर्चना विनय नही है,
जब-जब निद्रा में होता हूँ,
तब-तब यह आया करती है!
रचना बन जाया करती है...
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वे आँखें परेशान करती हैं
1977 का वह दिन और आज का दिन। उस चाँटे की आवाज कानों में जस की तस गूँज रही है और तपिश अभी भी गाल पर महसूस हो रही है। खास बात यह कि वह चाँटा मुझे नहीं पड़ा था। मेरे ब्याह को डेढ़ बरस भी नहीं हुआ था। नौकरी करना फितरत में नहीं था और न थी कमा-खाने की जुगत भिड़ाने की अकल। मन्दसौर में सक्रिय पत्रकारिता में था। उस समय दैनिक *‘दशपुर-दर्शन’* का सम्पादक था। लेकिन पत्रकारिता के उच्च नैतिक आदर्श निभाते हुए कमाई कर लेने का करिश्मा मेरे बस के बाहर की बात थी। गृहस्थी चलाना तो कोसों दूर, अकेले का पेट पालना भी कठिन था। तभी एक अपराह्न, *बाबू (यादवेन्द्र भाटी)* रतलाम से आया...
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पतझड़
यह मौसम है पतझड़ का
पत्ते पीले पड रहे हैं
और कमजोर भी
वे गिर रहे हैं एक एक कर
जैसे घटता है पल पल जीवन...
सरोकार पर Arun Roy
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भव्य एवं स्वभाव
भव्य, सुंदर है
समादृत है
अलंकृत है
प्रशंसित है
परन्तु भव्य से
भी पहले
भव्य से भी
दुर्निवार
एक भाव है
जो हमारा स्वभाव है...
समादृत है
अलंकृत है
प्रशंसित है
परन्तु भव्य से
भी पहले
भव्य से भी
दुर्निवार
एक भाव है
जो हमारा स्वभाव है...
अभिनव रचना पर
Mamta Tripathi
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बेहतर लिखना तो ठीक है साहब,
बेहतर पढ़ने वालों में
असली बुद्धिमत्ता कहाँ से लाएँगे?
Ravishankar Shrivastava
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माफ़ी
हम जब छोटे थे तो कक्षा में गुरुजी
और घर में बाउजी दंडाधिकारी थे।
दोनों को सम्पूर्ण दंडाधिकार प्राप्त था।
स्कूल में गलती किया तो मुर्गा बने,
घर में गलती किया तो थप्पड़ खाए...
बेचैन आत्मा पर देवेन्द्र पाण्डेय
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वक्त ......
बस यूँ ही ....
जिंदगी की व्यस्तता वक्त को कोसती हुई चलती है।
और वक्त ...वो क्या ....वो तो अपनी रफ़्तार में है।
कोई फर्क उसे नहीं पड़ता...
सतत...बिना रुके....अनवरत
अपनी उसी रफ़्तार में...
Kaushal Lal
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हो इश्क़ मुक़म्मल तो जानें
बुलंदियाँ तो इश्क़ की,
नाकामियों में हैं
हम तुम्हारे और तुम हमारे
ये सब समझौते हुआ करते हैं
मुक़म्मल जज़्बात
तो तब हैं
कि
तुम हममें
और हम तुममें रहें।
नाकामियों में हैं
हम तुम्हारे और तुम हमारे
ये सब समझौते हुआ करते हैं
मुक़म्मल जज़्बात
तो तब हैं
कि
तुम हममें
और हम तुममें रहें।
Ye Mohabbatein at
शुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसार्थक चर्चा।
जवाब देंहटाएंआपका आभार राधा तिवारी जी।
बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत बढियां चर्चा
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति है, कृपया हमारी वेबसाइट में भी पधारें. नीचे लिंक दिए हुए हैं
जवाब देंहटाएंबाइक नंबर से मालिक का नाम online
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