मित्रों!
मंगलवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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चीखो, बस चीखो.....
स्मिता सिन्हा
चीखो कि हर कोई चीख रहा है
चीखो कि मौन मर रहा है
चीखो कि अब कोई और विकल्प नहीं...
मेरी धरोहर पर yashoda Agrawal
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आस्था और चढ़ावा
....आस्था, विश्वास, भक्ति अपनी जगह है लेकिन यह धन जो सर्व साधारण की जेब से निकल कर जमा हो रहा है इसका उपयोग कहाँ, किस प्रकार और किस काम के लिए हो रहा है इसे जानने का अधिकार हर नागरिक को होना चाहिए...
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गीतिका "धरती का श्रृंगार"
(राधा तिवारी)
नई नवेली दुल्हन जैसा यह प्यारा संसार है
हँसी-ठिठोली इसमें देखी हमको इससे प्यार है
आंचल में फुलवारी लेकर आई बसंत बहार है
नई नवेली दुल्हन जैसा ही प्यारा संसार है...
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महमूद बघर्रा
(हिन्दी के प्रतिष्ठित बाल साहित्यकार हमारे पिताजी आदरणीय श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी का आज 89वां जन्म दिवस है।वो भौतिक रूप से हमारे बीच उपस्थित नहीं हैं लेकिन उनकी रचनात्मकता तो हर समय हमारा मार्ग दर्शन करेगी .---ऐतिहासिक व्यक्तित्व “महमूद बघर्रा”के विषय में रोचक जानकारियां देने वाला यह लेख पिता जी ने देहावसान से एक दो माह पहले ही लिखा था। उनकी अभी तक अप्रकाशित इस रचना को आज मैं“फुलबगिया” पर प्रकाशित कर रहा हूँ।)
महमूद बघर्रा
Fulbagiya पर डा0 हेमंत कुमार
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वे नन्हीं कब्रें
(हिन्दी के प्रतिष्ठित बाल साहित्यकार हमारे पिताजी आदरणीय श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी का आज 89वां जन्म दिवस है।वो भौतिक रूप से हमारे बीच उपस्थित नहीं हैं लेकिन उनकी रचनात्मकता तो हर समय हमारा मार्ग दर्शन करेगी .उन्होंने बाल साहित्य के साथ ही प्रचुर मात्रा में बड़ों के लिए भी साहित्य सृजन किया है ---आप सभी के लिए मैं आज मैं उनकी एक काफी पहले प्रकाशित कहानी को ब्लाग पर पुनः प्रकाशित कर रही हूँ ...)
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पिता
पिता, तुम्हारे जाने के बाद मैंने जाना
कि तुम मेरे लिए क्या थे.
जब तुम ज़िन्दा थे,
पता ही नहीं चला,
चला होता, तो कह देता,
बहुत ख़ुश हो जाते तुम,
मैं भी हो जाता
अपराध-बोध से मुक्त.
पिता, ऐसा क्यों होता है
कि पूरी ज़िन्दगी गुज़र जाती है
और हम समझ ही नहीं पाते
कि कौन हमारे लिए क्या है.
कि तुम मेरे लिए क्या थे.
जब तुम ज़िन्दा थे,
पता ही नहीं चला,
चला होता, तो कह देता,
बहुत ख़ुश हो जाते तुम,
मैं भी हो जाता
अपराध-बोध से मुक्त.
पिता, ऐसा क्यों होता है
कि पूरी ज़िन्दगी गुज़र जाती है
और हम समझ ही नहीं पाते
कि कौन हमारे लिए क्या है.
कविताएँ पर Onkar
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निर्णायक शंखनाद ------
महेश राठी
प्रस्तुत लेख से उसकी पुष्टि ही होती है।क्रांति स्वर पर विजय राज बली माथुर |
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सफ़र जो आसान नहीं ...
बेतहाशा फिसलन की राह पर
काम नहीं आता मुट्ठियों से घास पकड़ना
सुकून देता है उम्मीद के पत्थर से टकराना
या रौशनी का लिबास ओढ़े अंजान टहनी का सहारा
थाम लेती है जो वक़्त के हाथ...
Digamber Naswa
शुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंआभार
सादर
विस्तृत चर्चा ...
जवाब देंहटाएंआभार मेरी रचना को आज जगह देने के लिए ...
बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंइस अंक में ' क्रांतिस्वर ' की पोस्ट को स्थान देने हेतु आभार एवं धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबढ़िया रहा संकलन
जवाब देंहटाएंसुन्दर लिंक्स. मेरी कविता शामिल करने के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर एवं पठनीय रचनाओं से सुसज्जित आज की चर्चा ! मेरी आलेख को आज के मंच पर स्थान देने के लिए आपका हृदय से धन्यवाद एवं आभार शास्त्री जी !
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