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रविवार, अप्रैल 21, 2019

"सज गई अमराईंयां" (चर्चा अंक-3312)


स्नेहिल अभिवादन  
रविवासरीय चर्चा में आप का हार्दिक स्वागत है| 
देखिये मेरी पसंद की कुछ रचनाएँ | 
अनीता सैनी 
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मुक्तकगीत

 "बैरियों को कब्र में दफन होना चाहिए" 

 (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 

 उच्चारण 
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पुस्तक समीक्षा: 

शब्दहीन का बेमिसाल सफर 

-गोपाल शर्मा 

 

Image result for गुब्बारे के चित्र
 क्षितिज 
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याद आई एक 

 कहानी भूली बिसरी  

 व्याकुल पथिक 
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लहरों से डरता हुआ तैराक ... 


जज़्बात 
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हर बंद कमरे में कोई कहानी रहती है…  

सुबह ने कान में कुछ कह दिया  

उधर सूरज से झाँकने लगी है 

 किरणें इधर खुली खिड़कियों से दीवारें चीख रही हैं  

शायद कोई किस्सा लिए बिखरे पड़े हैं  

कुछ पन्ने इस वीरान से कमरे में एक शख़्स दिखा था 

 यहाँ रात के अंधेरे में निगल गयी तन्हाई या बहा ले गए आँसू उसे   शिनाख़्त करते हैं 

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जन्‍म लिया जिस माटी में बीता गोद में जिसके बचपन वहाँ 
 कर रहे अत्याचार शूरवीरों की इस धरती पर जयचंदो की है 
 भरमार भरे हुए है देश में दुश्मन अपने ही 
 भाई बंधु गद्दार किस लालच में अंधे होकर भूल गए 
 अपने संस्कार भारत की गरिमा मर्यादा का कर रहे हैं  
 Ocean of Bliss
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यह कैसा इश्क  
यह कैसा इश्क है आसमां का ज़मीं से लगता है 
 दूर कहीं मिलता है ज़मीं से मगर यह सच नहीं है 
 यह है सिर्फ फ़साना चाह के भी गा न पाएं   
यह प्यार का तराना जब  गुजरता है 
 इश्क इनका दर्द की इंतहा से आँसुओं की बारिश  
तब ज़मीं को भिगोती बस यही 
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सज गई अमराईंयां 

आमवृक्ष ने पहन लिए, मंजरियो के हार। 
 जैसे दूल्हे सज गए, करके अपना श्रृंगार। 
 कोयल कुहुक-कुहुक कर, छेड़ें शहनाईयों की तान। 
 धरती पर अमराईयों के, तन गए हैं वितान।  
छोटी-छोटी अमियों के, आभूषण हैं पहने 
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मेरी सांसों की डोर से, अन्तस के अंतिम छोर से। 
मन का तो नाता जुड़ा है, आँखों की भीगी कोर से।  
बैठी बैठी गुमसुम सी मैं जाने क्या क्या गुनती हूँ  
जो किसी ने न कहा हो वो भी अकसर सुनती हूँ  
भाव नहीं छुप पाते है मेरे मनबसिया चितचोर से 
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इस कलियुग के दौर से व्यभिचारी के तौर से भ्रस्टाचार के जोर से बलात्कार के *शोर* से त्रस्त हूँ  

मै राजनीति के नए प्रयोग से जाति-धर्म के बढ़ते भोग से 

 गंदी मानसिकता के रोग से पत्रिकारिता के नए ढोंग से त्रस्त हूँ 

 मै इन झूठे अधिकारों से समाज में मिलते  

धिक्कारो से ऐसे सरकारी मक्कारो से  

देश में बैठे गद्दारो से त्रस्त हूँ   

 आवाज 

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राजनीतिक विकृति 

जोश मलिहाबादी का एक शेर है - सब्र की ताक़त जो कुछ दिल में है, खो देता हूँ मैं, जब कोई हमदर्द मिलता है तो, रो देता हूँ मैं. भारतीय लोकतंत्र के सन्दर्भ में मैंने इस शेर का पुनर्निर्माण कुछ इस तरह किया है - 
गोपेश मोहन जैसवाल  
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३५५.  

इंजन 

जब तक मैं डिब्बे में था,  
मुझे लगता था,  
मेरा डिब्बा ही ट्रेन है,  
बस यही चल रहा है... 
कविताएँ पर Onkar 
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बुद्धि बड़ी या शेर 

Fulbagiya पर 
डा0 हेमंत कुमार 
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12 टिप्‍पणियां:

  1. मंच को बहुत सुंदर विभिन्न प्रकार की पठनीय सामग्रियों से सजाया है आपने। मेरे संस्मरण को स्थान देने के लिये धन्यवाद अनिता बहन।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही बेहतरीन रचनाओं से सजी हुई सुंदर प्रस्तुति सभी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका बहुत बहुत आभार अनिता जी

    जवाब देंहटाएं
  3. बेहतरीन रचना संकलन एवं प्रस्तुति सभी रचनाएं उत्तम रचनाकारों को हार्दिक बधाई मेरी रचना को स्थान देने के लिए सहृदय आभार सखी

    जवाब देंहटाएं
  4. सुन्दर चर्चा.मेरी कविता शामिल करने के लिए आभार.

    जवाब देंहटाएं
  5. सार्थक लिंकों के साथ पठनीय चर्चा,

    आपका आभार आदरणीया अनीता सैनी जी|

    जवाब देंहटाएं
  6. सुन्दर रविवारीय चर्चा। आभार अनीता जी 'उलूक' की बकबक को भी जगह देने के लिये।

    जवाब देंहटाएं
  7. उम्दा चर्चा। मेरी रचना को चर्चा मंच में स्थान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, अनिता दी।

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत ही उल्लेखनीय अंक प्रिय अनीता। शीर्षक अत्यंत मनमोहक है। मंच से रचना के माध्यम से जुड़ कर बहुत ही अच्छा लग रहा है। नये ब्लॉग से भी परिचय हुआ। सभी रचनाकारों को सप्रेम सादर बधाई और शुभ कामनाएं। और इस सुंदर प्रस्तुति के लिए तुम्हे भी हार्दिक बधाई और प्यार। 🌷🌹🌹🌺💐🌹🌷🥀

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  9. अत्यंत सुंदर प्रस्तुति....मेरी रचना को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार आपका

    जवाब देंहटाएं

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