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Tuesday, April 30, 2019

"छल-बल के हथियार" (चर्चा अंक-3321)

मित्रों!
मंगलवार की चर्चा में आपका स्वागत है। 
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
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अनचाहे 

चाहता हूँ कि प्रेम न करूँ उसे।  
समस्या अनेक,  
उम्र, जाति, धर्म, व्यवसाय,  
रँग-रूप, धन-दौलत  
और भी बहुत कुछ... 
विमल कुमार शुक्ल 'विमल' 
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नही लिख सके ...  

मुकेश गिरि गोस्वामी 
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उसने कहा था -  

दिविक रमेश 

रवीन्द्र भारद्वाज 
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ख़त हवा में अध्-जले जलते रहे ... 

मील के पत्थर थे ये जलते रहे
कुछ मुसफ़िर यूँ खड़े जलते रहे

पास आखुद को निहाराहो गया
फुरसतों में आईने जलते रहे... 
दिगंबर नासवा  
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मेरी अंगुली की स्याही ही  

मेरा लोकतंत्र है 

एक जमाना था जब अंगुली पर स्याही का निशान लगने पर मिटाने की जल्दी रहती थी लेकिन एक जमाना यह भी है कि अंगुली मचल रही है, चुनावी स्याही का निशान लगाने को! कल उदयपुर में वोट पड़ेंगे, तब जाकर कहीं अंगुली पर स्याही का पवित्र निशान लगेगा। देश में लोकतंत्र है, इसी बात का तो सबूत है यह निशान... 
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जब तक देर है,  

तब तक तो अंधेर का रहना तय ही है ! 

जहां बाकी त्योहारों में अवाम अपने आराध्य की पूजा-अर्चना कर उसे खुश करने की कोशिश करता है, वहीं इस उत्सव में ''आराध्य'' दीन-हीन बन अपने भक्तों को रिझाने में जमीन-आसमान एक करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। मजे की बात यह है कि आम जिंदगी में लोगों को अलग-अलग पंथों, अलग-अलग मतों को मानने की पूरी आजादी होती है और इसमें उनके आराध्य की कोई दखलंदाजी नहीं होती पर इस त्यौहार के ''देवता'' साम-दाम-दंड-भेद हर निति अपना कर यह पुरजोर कोशिश करते रहते हैं कि उनके मतावलंबी का प्रसाद किसी और को ना चढ़ जाए.... 
कुछ अलग सा पर गगन शर्मा 
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3 comments:

  1. सुन्दर मंगलवारीय अंक।

    ReplyDelete
  2. विस्तृत चर्चा ...
    आभार मेरी ग़ज़ल को यहाँ जगह देने के लिए ...

    ReplyDelete
  3. बहुत सुन्दर चर्चा प्रस्तुति 👌
    आभार
    सादर

    ReplyDelete

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