मित्रों!
शुक्रवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।
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आत्ममंथन
किसी इंसान की ज़िंदगी का वह दौर सबसे भयावह होता है जहाँ पूरी दुनिया की भीड़ मिलकर भी उसकी तन्हाई दूर नही कर पाती। उसके चारों ओर हँसते हुए चेहरे उसको रोने के लिए उत्साहित करते हैं। उसके कानों में पड़ने वाली हर आवाज़ को वो ख़ामोश कर देना चाहता है।
वो दौर जब उजाला उसके लिए एक डर लेकर आता है क्योंकि वो अंधेरे को छोड़ना नही चाहता। जब बदलते मौसम भी बदलाव का एहसास नही कराते। जब तारीखें बदलने पर भी कुछ नही बदलता।
वो दौर जब इंसान ख़ुद से सवाल करता है और ख़ुद ही जवाब देता है।
परिस्थिति के उस चक्र को आत्ममंथन की तरह इस्तेमाल करने वाले लोग मानसिक रूप से सबसे अधिक मजबूत इंसान बन जाते हैं।
अनकहे किस्से पर
Amit Mishra 'मौन'
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उसूलों वाला दरोगा
‘उसूलों पर जहाँ आंच आए, टकराना ज़रूरी है, जो ज़िन्दा हो, तो फिर, ज़िन्दा नज़र आना, ज़रूरी है.’ वसीम बरेलवी वसीम बरेलवी के इस मकबूल शेर से मुझे एक पुराना किस्सा याद आ रहा है लेकिन इस किस्से में उसूल ज़रा मुक्तलिफ़ किस्म के हैं - अपने बचपन में हम सबने प्रेमचन्द की कहानी ‘नमक का दरोगा’ पढ़ी होगी. क्या उसूल थे हमारे नायक के...
तिरछी नज़र पर
गोपेश मोहन जैसवाल
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बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति 🙏 )
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत सुन्दर अंक।
जवाब देंहटाएंसार्थक सूत्रों से सजा आज का चर्चामंच ! मेरी प्रस्तुति को आज के संकलन में सम्मिलित करने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार शास्त्री जी ! सादर वन्दे !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
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