शीर्षक पंक्ति: आदरणीय ओंकार जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
शुक्रवारीय चर्चा अंक में आपका स्वागत है। (चर्चा अंक 4484)
आइए पढ़ते हैं चंद चुनिंदा रचनाएँ-
गीत "इन्द्रधनुष भी मन को नहीं सुहाए रे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
पुरवा की जब पड़ीं फुहारें,
ताप धरा का बहुत बढ़ा,
मस्त हवाओं के आने से ,
मन का पारा बहुत चढ़ा,
नील-गगन के इन्द्रधनुष भी,
मन को नहीं सुहाए रे!
श्याम-घटाएँ विरहनिया के,
मन में आग लगाए रे!!
*****
आत्म मंथन करो
खुद पर इतना विश्वास रखो
अपने कर्तव्यों से पीछे नहीं हटो
अधिकार तुम्हारे हैं सुरक्षित
उनको कोई छीन नही सकता।
*****
अगर आप मेहनत नहीं कर पा रहे तब खाने पर आपका कोई अधिकार नहीं होना चाहिए , केवल एक समय का भोजन करें , सुबह हल्का नाश्ता एवं डिनर शाम को 4 बजे , रात आठ बजे ग्रीन टी के साथ 4 फीके बिस्कुट काफी होंगे ठाठ से जीने के लिए और यक़ीनन वजन कण्ट्रोल रहेगा ! सुबह स्वच्छ हवा में गहरी साँस भरकर छोड़ने की आदत डालें , एवं जब भूख लगे तभी पानी अवश्य पियें , पूरे दिन में 10-12 गिलास पानी आपकी पुरानी मस्ती वापस लाने में सहायता करेगा , शुगर और मिल्क प्रोडक्ट का त्याग सोने में सुहागा होगा !
*****
कुछ विचारोत्तेजक रचनाएँ है तो कुछ अपने देश के भूभागों का चित्रण किया है जैसे हिमालय,कश्मीर आदि स्थल।
"काल के जाल" कविता में समय को भी दार्शनिक रूप से समझाने का प्रयास किया है।
कुल मिला कर सभी रचनाएँ भाव प्रधान होने के साथ साथ सशक्त भी हैं।
*****
जुदा-जुदा
कविता और कवि
हो जाएं, न यूं कहीं अजनबी,
यूं ना, भूल जाएं पल के महजबीं,
रंग सारे, हलके हलके,
भींच कर, मूंद लूं, ये पलकें,
अलहदा सा!
है ये रुप रंग, कितने जुदा!
जुदा-जुदा सा लगे, ये दो पल,
चल, कहीं दूर, इन फासलों से निकल!
कविता को मैं कोलाहल में से
उठाकर लेकर आती हूं
और कविता मुझे एकांत में लेकर जाती हैं
*****हाइकुभोर सुहानी
कहती है कहानी
शब्द संवारे
पँख फैलाये
डोल रहा है मन
गुनगुनाये
*****
'आजकल आप रूह पढ़ रही हैं न? बहुत अच्छी किताब है क्या? कितना सुंदर लिख रही हैं आप?' कल इनबॉक्स में किसी ने पूछा था. मैं देर तक चुप रही. समझ नहीं आया क्या कहूँ...क्या मैं अच्छा लिख रही हूँ? क्या किताब बहुत अच्छी है? अच्छा लगना कैसा होता है. 'अच्छी और बहुत जरूरी किताब है' इनबॉक्स में जवाब ठेलने के बाद सोचती रहती हूँ.
*****
फिर मिलेंगे।
रवीन्द्र सिंह यादव
शुभ प्रभात।।।। पटल को नमन ।।।।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति।।।।
आदरणीय ओंकार जी की यह रचना ....
आँगन में रखी कुर्सियाँ
अब धूप में तपती हैं,
बारिश में भीगती हैं,
तिल-तिल कर मरती हैं.....
अत्यंत ही सराहनीय है। आज तो आंगन ही गौन होते जा रहे हैं, कुर्सियों के कौन पूछे?? सिमटते रिश्तों के इस दौर में, ठौर कहां किसको! एकाकी हैं सब.....
धन्यवाद आदरणीय सुन्दर संकलन
जवाब देंहटाएंसार्थक और सराहनीय चर्चा का अंक।
जवाब देंहटाएंआपका आभार आदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी।
बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंशानदार चर्चा अंक । आभार ।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात ! सराहनीय रचनाओं के लिंक्स का सुंदर संयोजन, आभार !
जवाब देंहटाएंसुंदर सराहनीय चर्चा प्रस्तुति । सभी रचनाकारों को बधाई। आपका आभार आदरणीय।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति.आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति !!आपका बहुत बहुत धन्यवाद रविंद्र सिंह जी ,मेरी प्रविष्टि को चर्चा मंच पर स्थान दिया !!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर संकलन।
जवाब देंहटाएंसादर
आभार आपका !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति, पुस्तक समीक्षा के लिए ढेरों धन्यवाद
जवाब देंहटाएं