मित्रों!
बुधवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
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आइए अब चलते हैं
कुछ लिंकों की ओर!
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हे वीणा वादिनी स्वर की देवी
मधुर तुम्हारी वीणा का स्वर
सुनकर पहुँची तुम्हारे दर पर
पाँव पकड़ वंदन किया |
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ग़ज़ल "रूप पुतले घड़ी भर में बदलते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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मन घुमड़ते बादलों से
सृष्टि की चाहत लड़ी
तूलिका क्यों मूक होकर
दूर एकाकी खड़ी।
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गीत : हिन्दी को सम्मान मिला : संजय कौशिक 'विज्ञात'
स्वर व्यंजन का मेल मिला तब शब्दों ने ली अँगड़ाई बना व्याकरण मात्रा खिलती भावों की यह चतुराई मुकुट चंद्र बिंदी का धरके वर्णों को अभिमान मिला।। विज्ञात की कलम--
मेरी जुबानी : मेरी आत्माभिव्यक्ति सुधा सिंह व्याध्र
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दांतों तले उँगली दबाते देख एआई के कमाल
आज मरने के बाद लिया जाता मृतक का उस से हाल
दांत काटे की रोटी खाते हैं जो, कभी अकेले नहीं रहते
कोई जन बात-बात पर दांत पीसने लगते
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नैन में जलधार देखा ।
लाल-नीला,श्वेत- श्यामल
सज रहा संसार देखा ॥
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फेमस फाइव और कारवाँ का सफर - एनिड ब्लाइटन | अनुवाद: डॉ सुधीर दीक्षित, रजनी दीक्षित
कहानी
गर्मियों की छुट्टियाँ चल रही थीं और इस बार बच्चे किरिन कॉटेज की जगह जूलियन डिक और एन के घर आए हुए थे। जॉर्ज भी टिम के साथ यहीं पर इस बार अपनी छुट्टियाँ मना रही थी। वह सभी इन छुट्टियों में भी कुछ ऐसा रोचक काम करना चाहते थे जो उन्हें खतरे में भी न डाले और उन्हें मज़ा भी आए। पर उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें।
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प्रिय शुचि,
आज जीवन के जिस मोड़ पर हम आ खड़े हुए हैं वहाँ से हमारी मंज़िलों के रास्ते अलग अलग दिशाओं के लिए मुड़ गए हैं ! मुझे नहीं लगता कि हम अब फिर से कभी एक ही राह के हमसफ़र हो सकेंगे ! इनके पीछे क्या वजहें रहीं उनके विश्लेषण के लिये एक ईमानदार आत्मचिंतन की बहुत ज़रुरत है ! वो पता नहीं हम और तुम कभी कर पायेंगे या नहीं लेकिन यह सच है कि अपनी सोच और अपने फैसले को, सही हो या ग़लत, उचित सिद्ध करने की धुन में प्रेम और विश्वास की डोर को तुमने इतने झटके के साथ खींचा कि वह टूट ही गयी और अब उसका जुड़ना नितांत असंभव है !
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मेरी दुनिया विमल कुमार शुक्ल
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जैसे वृक्ष का है
जड़ विहीन हो जाना
नदी का है
जल हीन हो जाना
सरोकार अरुण चन्द्र रॉय
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ग़ज़ल जिसमें हो परमेश्वर का नाम वो चौपाई नही हो सकते तुम
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दौड़ (कहानी) सुबह गहरी धुंध में लिपटी थी उसमें भीगे पेड़ ठिठुरे से खड़े थे। सूरज भी कोहरे की चादर में लिपटा मानों उजाला होने और धूप निकलने का इंतजार कर रहा था। सुबह के 8:00 बज रहे थे लेकिन लोग अभी भी घरों में दुबके थे। कच्ची सड़क पर इक्का-दुक्का साइकिल या बाइक सवार कोहरे की चादर से इस निस्तब्धता को चीर के गुजर जाते और उनके गुजरते ही सब कुछ मानों फिर जम जाता। मेघना रोज की तरह सुबह 6:00 बजे उठ गई थी।
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राधा तिवारी राधेगोपाल , राधे के अनमोल दोहे
सूर्य किरण को देखकर, खिल जाता है गात।
मन भावन सब को लगे, सुंदर सुखद प्रभात।।
मूंगफली और गुड़ करे,तन मन को मजबूत।
शीत दूर करते यही, इसके बहुत सबूत।। राधे का संसार
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कार्टून :- चीते को चुनाव भी लड़वाया जा सकता है
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दोहे "माता के आशीष ने, मुझको किया निहाल" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
तब से अब तक हृदय में, भरा हुआ है शोक।।
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पैंसठ वर्षों तक रहा, सिर पर माँ का हाथ।
जब से माँ सुरपुर गयी, मैं हो गया अनाथ।।
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आज के लिए बस इतना ही...!
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सादर नमस्कार सर।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर सराहनीय संकलन।
सभी को बधाई।
सुन्दर सार्थक सूत्रों से सुसज्जित आज का चर्चामंच शास्त्री जी ! मेरे ब्लॉग 'सुधीनामा' की पोस्ट को आपने आज की चर्चा में सम्मिलित किया आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार ! सादर वन्दे !
जवाब देंहटाएंरोचक लिंक्स से सुसज्जित चर्चा। मेरी पोस्ट को स्थान देने हेतु हार्दिक आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लिंक, सुधिनामा की कहानी बहुत बेहतरीन
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सराहनीय और सार्थक अंक ।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को शामिल करने के लिए आपका हार्दिक आभार और अभिनंदन आदरणीय शास्त्री जी । सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।