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मंगलवार, सितंबर 20, 2022

"मानवता है भंग" (चर्चा अंक 4558)

सादर अभिवादन मंगलवार की प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है (शीर्षक और भूमिका आदरणीय शास्त्री सर जी की रचना से)

दुनिया में बिखरे हुए, भाँति-भाँति के रंग।
मत-मजहब के फेर में, मानवता है भंग।।
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मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना 
मगर,इन दिनों मजहब को तो छोड़े घर परिवार
 भी वैचारिक मतभेद के कारण टूट रहें हैं। 
और घरों से भी "मानवता" शब्द ही बिलुप्त हो रहा है। 
ऐसा नहींथा कि-पहले के समय में मतभेद नहीं होते थे 
लेकिन, मनभेद नहीं होता था। 
मगर,आजकल घरों को तोड़ने का भी ये बहाना बन गया है कि-
"हमारे विचार एक दूसरे से नहीं मिलते"
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परमात्मा हमें सदबुद्धि दें,इसी प्रार्थना के साथ चलते हैं आज की रचनाओं की ओर...
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दोहे "मानवता है भंग" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मान और अपमान का, नहीं किसी को ध्यान।
सरे आम इंसान का, बिकता है ईमान।।

भरे पड़े इस जगत में, बड़े-बड़े धनवान।
श्री के बिन कैसे कहें, उनको हम श्रीमान।।

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 “लघु कविताएँ”

विचार खुद की ख़ातिर 

तलाशते हैं शब्दों का संसार 

शब्दों की तासीर 

फूल सरीखी हो तो अच्छा है 

 शूल का शब्दों के बीच क्या काम

 क्योंकि..,

सबके दामन में अपने-अपने 

हिस्से के शूल तो 

पहले से ही मौजूद हैं ।

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वर्ण पिरामिड -अभिलाषा चौहान

है

सूर्य

पालक

संचालक

संसार-सृष्टि

जीवन-आधार

अंधकार-संहार।

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अल्प कालिक कुंद कवि

लेखनी को रोक देते

शब्द बन बैठे अहेरी

गीत कैसे अब खिलेंगे

धार में पत्थर महेरी

भाव ने क्रंदन मचाया

खिन्न कविता रो पड़ी।।

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कहते थे पापा

कहते थे पापा,
" बेटी! तुम सबसे अलग हो! 
सब्र जितना है तुममें
किसी और में कहाँ! 
तुम सीता - सा सब्र रखती हो!! "

 बोल ये पिता के 
थे अपनी लाडली के लिए......... 
 या भविष्य की कोख में पल रहे
 अपनी बेटी के सीता बनने की
 वेदना से हुए पूर्व साक्षात्कार के थे।..... 
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एक ख़त तुम्हारे नाम


प्रिय शुचि,

आज जीवन के जिस मोड़ पर हम आ खड़े हुए हैं वहाँ से हमारी मंज़िलों के रास्ते अलग अलग दिशाओं के लिए मुड़ गए हैं ! मुझे नहीं लगता कि हम अब फिर से कभी एक ही राह के हमसफ़र हो सकेंगे ! इनके पीछे क्या वजहें रहीं उनके विश्लेषण के लिये एक ईमानदार आत्मचिंतन की बहुत ज़रुरत है ! वो पता नहीं हम और तुम कभी कर पायेंगे या नहीं लेकिन यह सच है कि अपनी सोच और अपने फैसले को, सही हो या ग़लत, उचित सिद्ध करने की धुन में प्रेम और विश्वास की डोर को तुमने इतने झटके के साथ खींचा कि वह टूट ही गयी और अब उसका जुड़ना नितांत असंभव है !

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ताकि तुम्हें दे सकूं समय और आज

हर बार तुम्हारे टूटने से

मेरे अंदर भी

गहरी होती है कोई पुरानी ददार।

तुम्हारे दर्द का हर कतरा

उन दरारों को छूकर 

गुजरता है

और 

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"अतिथि देवो भव' की परम्परा पर रंगारंग यमुना आरती एवं अंतर्राष्ट्रीय कलाकारों का हुआ सम्मान,

आजादी के अमृत महोत्सव की श्रृंखला में डॉ भीमराव आंबेडकर विवि (पं दीनदयाल उपाध्याय ग्राम्य विकास संस्थान) आगरा के सहयोग से नटरांजलि थियेटर आर्ट्स द्वारा आयोजित 7वें अंतर्राष्ट्रीय ताज रंग महोत्सव का आगाज़ मिस्त्र के कलाकारों ने मोहम्मद अशरफ के निर्देशन में इजिप्शियन लोक नृत्य करके किया।

सर्वप्रथम प्राचीन श्री कैलाश मंदिर के महंत गौरव गिरि के निर्देशन में कलाकारों के संग यमुना आरती की गई इसी श्रंखला में महोत्सव के मुख्य संरक्षक डॉ विजय किशोर बंसल जी के जन्मदिन के उपलक्ष्य पर दीर्घायु एवं स्वास्थ्य लाभ की कामना की गई।

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आज का सफर यही तक,अब आज्ञा दें आपका दिन मंगलमय हो कामिनी सिन्हा 

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर चर्चा प्रस्तुति।
    मेरी पोस्ट को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद,
    @ कामिनी सिन्हा' जी।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर सूत्रों से सजी बेहतरीन चर्चा । आज की चर्चा में मेरे सृजन को सम्मिलित करने के लिए आपका हार्दिक कामिनी जी ।

    जवाब देंहटाएं
  3. बेहतरीन रचना संकलन एवं प्रस्तुति सभी रचनाएं उत्तम रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं मेरी रचना को चयनित करने के लिए सहृदय आभार सखी सादर

    जवाब देंहटाएं

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