मैं मनोज कुमार आज चर्चा मंच के अंक - 125 को सजा रहा हूँ।
तेजस ने खिड़की से बाहर देखते हुए ही कहा - ‘ साहब! कांच के साउण्ड प्रुफ कमरो में बैठने वालो को ये आवाज डिस्टर्ब करती है परन्तु मेरे लिए यह आवाज जीवन का संगीत है। जब तक यह आवाज सुनाई देती है सैकड़ो मजदूरो का जीवन चलता है। उनके बच्चो को खाना मिलता है। मुझे नहीं लगता कि इन सैकड़ो परिवारो के भविष्य से ज्यादा जरूरी मेंरा भविष्य है। ’ हिन्दी साहित्य मंच पर प्रस्तुत है मनीष कुमार जोशी की कहानी हड़ताल। एक नवयुवक कर्मी अपनी कम्पनी के मज़दूरों के हक़ के लिए लड़ाई लड़ रहा है। इस कंपनी में मजदूरो ने हमेंशा जंग हारी है परन्तु क्या इस बार मजूदरो की जीत होगी? |
सरस पायस पर अजय गुप्त का एक बेहतरीन बाल गीत लैपटॉप प्रस्तुत किया गया है। कहते हैं मित्रो, यह तो लैपटॉप है, कंप्यूटर का छोटा भाई। जो कुछ भी है कंप्यूटर में, इसमें भी वो हर अच्छाई। डिब्बे जैसे इस यंत्र में बहुत कुछ है। इस डिब्बे में मीठे गाने, चलते-फिरते चित्र मनोरम। बटन दबाओ मॉनीटर पर, हाज़िर हो जाता हर मौसम। पर साथ ही कवि इसके दुरुपयोग से बचने की सलाह भी दे रहा है इस कविता में सरलता और सहजता का अद्भुत सम्मिश्रण बरबस मन को आकृष्ट करता है। अधिक देखने से आँखों पर, बुरा असर पड़ता है भाई। और व्यर्थ के गेम छोड़कर, समय बचाना है चतुराई। | इस घटना ने अपनत्व जी के कवि मन को उद्वेलित किया और वे ज्वालामुखी की विभत्सता पर यह कहने से अपने को नहीं रोक पाईं कि इंसान कितना असहाय है प्रकृति के आगे एक वार फिर प्रकृति ने ये पाठ है पढाया । विज्ञान ने बहुत प्रगति की है ये है स्वीकार पर प्रकृति की क्षमता को क्या कोई भी कर सकता है नकार? |
क्या आप जानते हैं कि विश्व फ़िल्म इतिहास के चुनिन्दा मज़बूत स्तम्भों में से एक सर चार्ल्स स्पैन्सर उर्फ़ चार्ली चैप्लिन वर्ष १८८९ में आज ही के दिन (१६ अप्रैल) पैदा हुए थे! वे बड़े रोचक व्यक्तित्व के स्वामी थे। एक बार मोन्टे कार्लो में उनके (चार्ली चैप्लिन) जैसा दिखने की एक प्रतियोगिता चल रही थी। किसी को बताए बिना स्वयं चार्ली भी इस प्रतियोगिता में हिस्सा लेने पहुंच गए। वे तीसरे नम्बर पर रहे। यानी दुनिया में उन जैसे दिखने और हरकतें करने वाले उनसे बेहतर दो और व्यक्ति थे। ऐसे ही कई और रोचक और मज़ेदार चार्ली चैप्लिन के कुछ किस्से पढ़िए कबाड़खाना पर, जिसे प्रस्तुत किया है अशोक पांडे ने। |
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"इतनी निर्मम ना बनो,शची"....कहते अभिषेक ने हाथ पीछे की ओर बाँध लिए, मानो यदि सामने रहा तो जबरदस्ती खींच कर मिला लेगी और चल देगी...और बड़े दुखी स्वर में बोल पड़ा, " इतना आसान है शची, बस लेट्स पार्ट कह कर चल देना...अभी तुमने कुछ ठीक से बताया नहीं...मैंने कुछ जाना नहीं और लेट्स पार्ट फौरेवर..." कहानी ऐसे मोड़ पर है जहां अभिषेक शची को समझाते समझाते थक गया था, कि ज़िन्दगी चाहे चार पल की हो या एक सदी की, वह शची के साथ ही गुजारना चाहता है। हो सकता है, सब कुछ ठीक हो जाए। मेडिकल साइंस में रोज इतने नए प्रयोग हो रहें हैं...हो सकता है कुछ रास्ता निकल आए। कहानी के इस मोड़ पर आ चुके चरित्रों के ऊपर ज्ञान जी का कहना है “अब तक तो चरित्र बहुत स्पष्ट हो चले हैं। नायक की जगह मैं होता तो शची का इन्तजार करता और वह इन्तजार पुनर्जन्म के आगे भी जाता, अगर आवश्यकता होती तो!” यह कथा सशक्त भाषा में लिखी होने के साथ-साथ अन्त:संघर्ष का सफलतापूर्वक निर्वाह करती नज्ञर आती हैं। |
कहते हैं कि हम पानी की खपत करने में हमेशा से आगे रहे हैं परंतु पानी को बचाने में या पानी को कैसे पैदा किया जाये उसके लिये प्रयत्नशील नहीं हैं। एक ज्वलंत समस्या से हमें रू-ब-रू कराता एक बेहतरीन पोस्ट। रहिमन पानी रखिए, बिन पानी सब सून । पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुस चून ।। |
धर्म , ताकत और सत्ता यह एक ही पलड़े में साथ साथ झूलते हैं , पींगे बढाते हैं ।धर्म उसी को ताकत बख्शता है जिसके पास सामर्थ्य है। यह कहना कतई गलत नही होगा कि कोई भी धर्म स्त्री को समर्थ ,सबल, समान मनुष्य नही मानता। सलिएमेरे तईं यह बात सिरे से बेकार है कि कौन सा धर्म स्त्री के पक्ष मे है!! क्योंकि दर अस्ल कोई धर्म ऐसा है ही नही। चोखेर बाली पर यह सुजाता जी की प्रतुति स्त्री का कोई धर्म नही होता का कुछ अंश है।आगे कहती हैं यदि आस्था का ही सवाल हो तो मुझे निस्संकोच अपने जीवन मे सही पथ पर चलने के लिए धर्म से ज़्यादा लोकतांत्रिक मूल्यों मे आस्था है। धर्म आधारित किसी नैतिकता से अधिक मानवता और मानवाधिकारों में आस्था है! बिना स्त्री का भला होने वाला नही है , यह सबसे कड़ी लड़ाई है स्त्री के लिए। निःसंदेह यह एक श्रेष्ठ रचना है। |
एक बहुत अच्छी जानकारी प्रस्तुत कर रहे हैं सागर जी सोचालय पर। मूक फ़िल्में और सेंसरशिप पोस्ट द्वारा बता रहे हैं कि सन 1917 तक सेंसरशिप जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी. कौन सी फिल्म प्रदर्शनयोग्य है, कौन सी नहीं, यह तय करने का अधिकार पुलिस अफसरों को होता था। आम तौर पर वे फ़िल्में आसानी से प्रदर्शन कि इजाजत दे देते थे, जब तक कि राजनीतिक लिहाज़ से कोई आपत्तिजनक बात किसी फिल्म में न हो। होलीवुड के असर के कारण उन्ही दिनों मूक फिल्मों के दौड में भी चुंबन, आलिंगन और प्रणय के दृश्य फिल्मों में रखे जाते थे। मगर 1917 में ब्रिटिश हुकूमत ने ब्रिटेन का सेंसरशिप अधिनियम हमारे यहाँ भी लागू कर दिया। इस अधिनियम को लागू करने के पीछे मुख्य मकसद भारत के अर्धशिक्षित लोगों के सामने पश्चिमी सभ्यता के गलत तस्वीर पेश करने वाली अमेरिकी फिल्मों पर प्रतिबन्ध लगाना था। ब्रिटिश सरकार कि किन्हीं नीतियों की आलोचना करने वाली फिल्मों को आसानी से प्रदर्शन कि इजाज़त नहीं दी जाती थी। किसी फिल्म का शीर्षक भी अगर ‘महात्मा’ हो तो इसे प्रदर्शन कि अनुमति नहीं दी जाती थी क्योंकि इसे गाँधी जी के समर्थन का षड्यन्त्र समझा जाता। कहने का आशय यह कि भारतीय सिनेमा तब से सेंसर के कोप का शिकार बनी, उनमें कोहिनूर, फिल्म कम्पनी की ‘भक्त विदुर’, भालजी और बाबुराव पेंढारकर की ‘वन्देमातरम आश्रम’ और प्रभात फिल्म कम्पनी की ‘स्वराज्य तोरण’ प्रमुख है। |
पारंगत निष्णात कला में, ओ गुलाब तू! एक कीट अदृश्यमान सा, ओ गुलाब तू! रजनी की काली छाया में, लरज़ रहा है! उड़ती हुई मक्खियों जैसा, गरज़ रहा है! तेरे बिछे हुए बिस्तर में! महक अनोखी आती है, भीनी-भीनी चादर में! लेकिन इस कोमल शैय्या में, गुप्त-प्रेम का तम छाया है! ओ गुलाब! तू इसी लिए तो, रोगी कहलाया है! तुझे प्रेम के कीड़े ने, बीमार बनाया है! ओ गुलाब! बस इसी लिए तू, रोगी कहलाया है! William Blake (1757 - 1827) | यह प्रश्न कई बार मेरे मन में भी आया है कि क्या है कविता? आज दीपक शर्मा जी बता रहे हैं इसका उत्तर मुफलिस ज़िस्म का उघडा बदन है कभी बेकफन लाश पर चदता हुआ कफ़न है कभी । बेबस इंसान का भीगा हुआ नयन है कभी, सर्दीली रात में ठिठुरता हुआ तन है कभी । कविता बहती हुई आंखों में चिपका पीप है , कविता दूर नहीं कहीं, इंसान के समीप हैं । महज़ अल्फाज़ से खिलवाड़ नहीं है कविता, कोई पेशा, कोई व्यवसाय नहीं है कविता महज़ अलफाज़ से खिलवाड़ नहीं है कविता कोई पेशा ,कोई व्यवसाय नही है कविता । कविता शौक से भी लिखने का काम नहीं इतनी सस्ती भी नहीं, इतनी बेदाम नहीं । कविता इंसान के ह्रदय का उच्छ्वास है, मन की भीनी उमंग, मानवीय अहसास है । महज़ अल्फाज़ से खिलवाड़ नही हैं कविता कोई पेशा, कोई व्यवसाय नहीं है कविता ॥ कभी भी कविता विषय की मोहताज़ नहीं नयन नीर है कविता, राग -साज़ भी नहीं । कभी कविता किसी अल्हड यौवन का नाज़ है कभी दुःख से भरी ह्रदय की आवाज है कभी धड़कन तो कभी लहू की रवानी है कभी रोटी की, कभी भूख की कहानी है । महज़ अल्फाज़ से खिलवाड़ नहीं है कविता, कोई पेशा , कोई व्यवसाय नहीं है कविता ॥ | >
रवीन्द्र प्रभात जी परिकल्पना ब्लॉगउत्सव पर बता रहे हैं उड़नतश्तरी के पोपुलर होने का राज़। कहते हैं “ मैंने देखे हैं हिंदी ब्लॉगजगत में कई उतार-चढ़ाव , किन्तु एकऐसा चिट्ठाकार भी देखा है जो अंगद के पाँव की तरह जहां जम गया वहां जम गया। उसका व्यंग्य जहां दिल की गहराईयों में जाकर गुदगुदाता है वहीं कविता अपनी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति के कारण चिंतन केलिए विवश कर देती है। उसकी लोकप्रियता का पैमाना यह है कि हर नया चिट्ठाकार उसे अपनी प्रेरणा का प्रकाश पुंज महसूस करता है, नाम है समीर लाल समीर। आप भी जानना चाहते हैं तो यहां क्लिक करें। |
अपने आपमें सिमट कर हमने स्वार्थसिद्धि को बढ़ावा दिया है इससे किसी न किसी को तो चोट पहुँचाई ही है। हमें इसकी भनक नहीं कि कैसे हमने स्वयं को असामाजिक बना लिया है। हम नितान्त अकेलेपन की ओर बढ़ते जा रहे हैं। इसी अकेलेपन की शिकायत आज बुजुर्ग ही नहीं वरन हमारे समाज का युवा वर्ग भी कर रहा है। समाज में बढ़ रही इस नई समस्या की ओर भी ध्यान देना होगा। |
क्या आप टकला शेट्टी को जानते हैं। जरूर जानते होंगे क्योंकि कई फिल्मों में उसने अपनी खतरनाक आंखों से न केवल हिरोइनों वरन हीरो को भी घूरते हुए चुनौती देने का काम किया है। एक जनवरी 1938 को जन्मे टकला शेट्टी का पूरा नाम एमबी शेट्टी यानी मुद्या शेट्टी था। उनके ऊपर एक तथ्यपरक आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं राजकुमार सोनी जी। सचमुच यदि शेट्टी न होता तो मैं कभी नहीं जान पाता कि लोहे की छड़ को कैसे मोड़ा जाता है। जैकेट पर माचिस की तीली रगड़कर कैसे सिगरेट जलाई जाती है। कैसे घड़े को सिर से फोड़ा जाता है। कैसे अंगूठे से शराब की बोतल खोली जाती है। शेट्टी पर काम इसलिए भी जरूरी लगता है क्योंकि वह उसने उस दौर में फाइट मास्टर के तौर पर अपना काम प्रारंभ किया जब हीरो कम्पयूटर के भरोसे नहीं लड़ता था। साठ के दशक में हीरो के सामने या तो चीता होता था या फिर शेट्टी। सचमुच शेट्टी के फाइट के तौर-तरीकों को जानना बड़ा रोमांचक होगा। उनका सुनहरा दौर 1960 से 1980 के बीच का ही माना जाता है। इस दौर में उन्होंने नाइट इन लंदन, किस्मत, यकीन, कहानी किस्मत की, ईमानधरम, कब क्यों और कहां, यादों की बारात, विक्टोरिया नंबर दो सौ तीन, डान और त्रिशूल जैसी फिल्में की। सनी दयोल के पिता के साथ उन्होंने फाइटिंग के एक से बढ़कर एक दृश्य किए हैं। पाठकों से अनुरोध है कि यदि शेट्टी के बारे में उनके पास कोई लेख या अन्य जानकारी उपलब्ध है तो वे सोनी जी को जरूर अवगत कराएं। |
आज विश्व हीमोफीलिया दिवस। यह जानकारी उपलब्ध करा रहे हैं कुमार राधा रमण स्वास्थ्य सबके लिए पर। हीमोफीलिया अधिकांशतः पुरुषों को होने वाला आनुवांशिक रोग है जिसमें शरीर से रक्त का बहना नहीं रूकता। बिना चोट लगे भी कोहनी, घुटना या कूल्हा आदि में आंतरिक रक्तस्राव से जोड़ सूज जाते हैं जिससे असहनीय पीड़ा होती है और रोगी के विकलांग बनने का खतरा बढ़ जाता है।हीमोफीलिया ए(फैक्टर-8) प्रति 10 हजार लड़के में से किसी एक को जन्म के समय होता है। हीमोफीलिया-बी के मामले प्रति 50 हजार लड़कों में से किसी एक को जन्म के समय होते हैं। हीमोफीलिया-सी सेक्स से इतर क्रोमोजोम की कार्यप्रणाली बिगड़ने से होता है। ऐसे रोगी में रक्तस्त्राव की गति ज्यादा होती है। इस विषय पर एक बहुत ही सूचनाप्रद आलेख पढ़िए। |
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और अंत में ….! |
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
तेजस ने खिड़की से बाहर देखते हुए ही कहा -
सरस पायस पर अजय गुप्त का एक बेहतरीन बाल गीत 
धर्म , ताकत और सत्ता यह एक ही पलड़े में साथ साथ झूलते हैं , पींगे बढाते हैं ।धर्म उसी को ताकत बख्शता है जिसके पास सामर्थ्य है। यह कहना कतई गलत नही होगा कि कोई भी धर्म स्त्री को समर्थ ,सबल, समान मनुष्य नही मानता। सलिएमेरे तईं यह बात सिरे से बेकार है कि कौन सा धर्म स्त्री के पक्ष मे है!! क्योंकि दर अस्ल कोई धर्म ऐसा है ही नही। चोखेर बाली पर यह सुजाता जी की प्रतुति
एक बहुत अच्छी जानकारी प्रस्तुत कर रहे हैं सागर जी सोचालय पर। 

रवीन्द्र प्रभात जी परिकल्पना ब्लॉगउत्सव पर बता रहे हैं उड़नतश्तरी के पोपुलर होने का राज़। कहते हैं “
क्या आप टकला शेट्टी को जानते हैं। जरूर जानते होंगे क्योंकि कई फिल्मों में उसने अपनी खतरनाक आंखों से न केवल हिरोइनों वरन हीरो को भी घूरते हुए चुनौती देने का काम किया है। एक जनवरी 1938 को जन्मे टकला शेट्टी का पूरा नाम एमबी शेट्टी यानी मुद्या शेट्टी था। उनके ऊपर एक तथ्यपरक आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं राजकुमार सोनी जी।
फाइट के तौर-तरीकों को जानना बड़ा रोमांचक होगा। उनका सुनहरा दौर 1960 से 1980 के बीच का ही माना जाता है। इस दौर में उन्होंने नाइट इन लंदन, किस्मत, यकीन, कहानी किस्मत की, ईमानधरम, कब क्यों और कहां, यादों की बारात, विक्टोरिया नंबर दो सौ तीन, डान और त्रिशूल जैसी फिल्में की। सनी दयोल के पिता के साथ उन्होंने फाइटिंग के एक से बढ़कर एक दृश्य किए हैं। पाठकों से अनुरोध है कि यदि शेट्टी के बारे में उनके पास कोई लेख या अन्य जानकारी उपलब्ध है तो
आज 
मनोज कुमार जी!
जवाब देंहटाएंआज की चर्चा बहुत सुन्दर रही!
इसका कलेवर भी बहुत बढ़िया लगा रहा है!
वाह मनोज जी, बहुत उम्दा चर्चा की है.
जवाब देंहटाएंumda sheershak chhanta Shastri ji
जवाब देंहटाएंबढ़िया और विस्तृत चर्चा शास्त्री जी !
जवाब देंहटाएंKshama karen Manoj ji main pichhle comment me shastri ji kah gaya.
जवाब देंहटाएंसुन्दर और सार्थक चर्चा
जवाब देंहटाएंसमग्रता भी
मनोज जी,
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक चर्चा...बधाई
बहुत बढिया चर्चा……………ऽआभार्।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा।
जवाब देंहटाएंhamesha kuch naya milta hai.......
जवाब देंहटाएंआज की चर्चा
जवाब देंहटाएंबहुत आकर्षक तो है ही,
सारगर्भित भी है!
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मेरी प्रस्तुति "लैपटॉप" को चर्चा में
शामिल करने के लिए आभार!
अरे वाह! मेरा भालू
जवाब देंहटाएंमेरा लैपटॉप लेकर यहाँ छुपा है।
अपने बनाए चित्रों को सरस पायस के साथ इस चर्चा में देखकर बहुत ख़ुशी हुई.
जवाब देंहटाएंबढ़िया रही यह चर्चा!
जवाब देंहटाएंबहुत सारे अच्छे लिंक तो यहीं मिल गये।
very nice.
जवाब देंहटाएंmanoj sir aapne bahut acchhe dhang se charcha kee hai.
जवाब देंहटाएंbahut khoob.
जवाब देंहटाएंnice charcha.
sabhi lionk achhe hain.
चर्चा मंच पर आकर बहुत अच्छा लगा!
जवाब देंहटाएंचर्चाकार को बधाई!
बहुत उम्दा चर्चा !
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा चर्चा !
जवाब देंहटाएंअच्छी चर्चा। अंदाज़ अच्छा।
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया चर्चा।
जवाब देंहटाएं