फ़ॉलोअर



यह ब्लॉग खोजें

रविवार, जुलाई 25, 2010

रविवासरीय चर्चा

 

उलझ के ज़ुल्फ़ में उनकी गुमी दिशाएँ हैं

My Photo पाल ले इक रोग नादां...  पर गौतम राजरिशी

   की प्रस्तुति।

                                                                                                   

उलझ के ज़ुल्फ़ में उनकी गुमी दिशाएँ हैं
बटोही रास्ते खो कर भी लें बलाएँ हैं
खुला है भेद सियासत का जब से, तो जाना
गुज़ारिशों में छुपी कैसी इल्तज़ाएँ हैं
उन्हीं के नाम का अब आसरा है एक मेरा
हक़ीम ने जो दीं, सब बेअसर दवाएँ हैं
भटकती फिरती है पीढ़ी जुलूसों-नारों में
गुनाहगार हुईं शह्‍र की हवाएँ हैं

जब भी दिल को कोई बात अखर जाती है ...!

नुक्कड़ पर वेदिका

हर बार तुम्हारी गली नजर आती है
जब भी दिल को कोई बात अखर जाती है ...!

फ़ज़ल इमाम मल्लिक की कविता - बराबर के मुकबाले में

आखर कलश पर नरेन्द्र व्यास की प्रस्तुति


कभी-कभी ही कोई तारीख़
बन जाती है इतिहास
और याद रह जाती है सालों तक
ठीक 9/11 की तरह
हालांकि उस दिन न सरकारें बदलीं
न कहीं बगावत हुई
न ही ऐसा कुछ घटा
जिससे दहल जाती दुनिया

 

 

                                                                          

कविता समय चक्र के तेज़ घूमते पहिए का चित्रण है। कविता की पंक्तियां बेहद सारगर्भित हैं।

रुक रुक कर यूँ चलना क्या

My Photoजज़्बात, ज़िन्दगी और मै पर Indranil Bhattacharjee ........."सैल" की ग़ज़ल          

रुक रुक कर यूँ चलना क्या ।                                                                 

अंधेरों में पलना क्या ॥                                                                            

कर दो जो भी करना है ।                                                                       

फिर हाथों को मलना क्या ॥                                                                 

परवाना सा जल जाओ ।                                                                         

टिम टिम कर यूँ जलना क्या ॥                                                              अच्छी ग़ज़ल, जो दिल के साथ-साथ दिमाग़ में भी जगह बनाती है।

मेरा मन : रावेंद्रकुमार रवि की नई कविता

सरस पायस पर रावेंद्रकुमार रवि का मन जो कह रहा है, क्या, खुद ही पढ लीजिए।       

मेरा मन
रिमझिम के संगीत के साथ
झंकृत होकर
प्रीत का गीत
गाने लगता है!
मेरा मन
मुझे ही
लुभाने लगता है!                                                                                  प्रत्येक मन में अनेक विशेषताएं छुपी होती है,जिन्हें जागृत करके ही व्यिक्ति का जीवन सफल और सार्थक बन सकता है।

 

सोने की चिड़िया होने में इसका भी हाथ था.

मेरा फोटोAlag sa पर Gagan Sharma, कहते हैं कि भा

रत यूं ही सोने की चिड़िया नहीं कहलाता था। उस समय राज्य की तरफ से कामगारों को पूरी सुरक्षा तथा उनकी मेहनत का पूरा मुआवजा दिया जाता था। खासकर किसानों को हारी-बिमारी या प्राकृतिक आपदा में भी राजा से पूरा संरक्षण प्राप्त होता था। आखिरकार भूख से लड़ने में वही तो अहम भुमिका अदा करते थे। पेट भरा हो तभी हर काम सुचारू रूप से हो पाता है।

सिफर का सफ़र.................श्यामल सुमन

हिन्दी साहित्य मंच पर प्रस्तुत की गई इस ग़ज़ल को पढ़ कर मैं वाह-वाह कर उठा।   

नज़र बे-जुबाँ और जुबाँ बे-नज़र है
इशारे समझने का अपना हुनर है
सितारों के आगे अलग भी है दुनिया
नज़र तो उठाओ उसी की कसर है
मुहब्बत की राहों में गिरते, सम्भलते
ये जाना कि प्रेमी पे कैसा कहर है

नगर में जहरीली छी: थू है

मेरा फोटोऔघट घाट पर नवीन रांगियाल कह रहे हैं कि

टीप टॉप चौराहें, चमकीले मॉल्स और मेट्रो कल्चर्ड मल्टीप्लेक्स. कोई शक नहीं कि इंदौर विकास या ज्योग्राफिकल बदलाव (विकास या बदलाव पता नहीं ) की तरफ बढ़ रहा है, जो भी हो इसे विकास कि सही परिभाषा तो नहीं कह सकते. यह सच है कि तस्वीर बदल रही है. इस तस्वीर को देखकर शहर का हर आम और खास गदगद नज़र आता है. शहर के आसपास की ग्रामीण बसाहट भी इस चमक से खुश होकर इस तरफ खिंची चली आ रही है. ये ग्रामीण तबका शहर का इतना दीवाना है कि गाँव में अपनी खेतीबाड़ी छोड़कर यहाँ मोबाइल रिचार्ज करवाकर मॉल्स और मल्टीप्लेक्स में शहरी मछलियों के बीच गोता लगा रहे हैं. माफ़ कीजिये अब ये गाँव वाले भी भोलेभाले नहीं रहे.

सावन को हरा कर जाये कोई

मेरा फोटोज़िन्दगी पर वन्दना की प्रस्तुति में बहुत ही गहरा दर्द लफजों में उतर आया है।           

कब तक जलाऊँ अश्कों को
भीगी रात के शाने पर 
सावन भी रीता बीत गया
अरमानों के मुहाने पर 
जब चोट के गहरे बादल से
बिजली सी कोई कड़कती  है

बेटी हूँ मैं

मेरे भाव पर मेरे भाव की एक संवेदनशील प्रस्तुति।                                           

धरती के गर्भ में
पहले समाती हूँ मैं
बड़ी होने से पहले
जड़ों से
उखाड़ दी जाती हूँ मैं
फिर कहीं
विस्थापित होती हूँ मैं
धान की पौध हूँ मैं
बेटी हूँ मैं ।

ब्रह्माण्ड सुंदरी से मिलने का एक सुंदर अवसर।

Zakir Ali 'Rajnish' TSALIIM पर  ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ बता रहे हैं कि

क्या आपने कभी किसी बड़े से मैदान में खड़े होकर अपनी धरती को निहारा है? इधर-उधर, चारों तरफ जहाँ तक हमारी नज़र जाती है, पृथ्वी नज़र आती है और साथ ही हमें नज़र आते हैं पेड़-पौधे, नदी-नाले, खेत-खलिहान, पहाड़, जंगल आदि। और इसी के साथ हमारे दिमाग में बहुत सारे प्रश्न भी कौंधने लगते हैं कि पृथ्वी कितनी बड़ी है? इसका निर्माण कैसे हुआ? यह सूरज के चारों ओर क्यों घूमती है? इसमें ऋतुएँ कैसे बदलती हैं? वगैरह-वगैरह।

ब्लॉग चरित्र

My Photoमानसिक हलचल: विफलता का भय पर ज्ञानदत्त पाण्डेय कहते हैं कि

शिवकुमार मिश्र का सही कहना है कि ब्लॉग चरित्र महत्वपूर्ण है। बहुत से ब्लॉगर उसे वह नहीं दे पाते। मेरे ब्लॉग का चरित्र क्या है? यह बहुत कुछ निर्भर करता है कि मेरा चरित्र क्या है – वह इस लिये कि आठ सौ से अधिक पोस्टें बिना अपना चरित्र झलकाये नहीं लिख सकता।

अनीस अंसारी की शायरी

समय-सृजन (samay-srijan) पर डा. मेराज अहमद                                         

तुम्हारे ग़म का मौसम है                                                                              अभी तक

लब-ए-तश्ना पे शबनम है                                                                      अभी तक

सफ़र में आबले ही आबले थे                                                              

मगर पैरों में दम-ख़म है अभी तक

नहीं दैन्यता और पलायन

न दैन्यं न पलायनम् पर प्रवीण पाण्डेय का उद्घोष यह है कि

अर्जुन का उद्घोष था 'न दैन्यं न पलायनम्'। पिछला जीवन यदि पाण्डवों सा बीता हो तो आपके अन्दर छिपा अर्जुन भी यही बोले संभवतः। वीर, श्रमतत्पर, शान्त, जिज्ञासु, मर्यादित अर्जुन का यह वाक्य एक जीवन की कथा है, एक जीवन का दर्शन है और भविष्य के अर्जुनों की दिशा है। यह कविता पढ़ें अपने उद्गारों की ध्वनि में और यदि हृदय अनुनादित हो तो मान लीजियेगा कि आपके अन्दर का अर्जुन जीवित है अभी। उस अर्जुन को आज का समाज पुनः महाभारत में पुकार रहा है।

मन में जग का बोझ, हृदय संकोच लिये क्यों घिरता हूँ,
राजपुत्र, अभिशाप-ग्रस्त हूँ, जंगल जंगल फिरता हूँ,
देवदत्त हुंकार भरे तो, समय शून्य हो जाता है,
गांडीव अँगड़ाई लेता, रिपुदल-बल थर्राता है,
बहुत सहा है छल प्रपंच, अब अन्यायों से लड़ने का मन,
नहीं दैन्यता और पलायन ।

बता, मैं अपनी ही कब्र पर चिराग कैसे रखूं......?

My Photo Harkirat Haqeer पर हरकीरत ' हीर कहती हैं '

अपना तो दर्द का दामन है ,कोई साथ चले न चले
गिला नहीं अय ज़िन्दगी , तू अब मिले न मिले
पेश हें फिर कुछ क्षणिकाएँ ......
(१)
नजरिया ......
उसकी नज़रें देख रही थीं
रिश्तों की लहलहाती शाखें .....
और मेरी नज़रें टिकी थी
उनकी खोखली होती जा रही
जड़ों पर .......!!

17 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर चर्चा ....धन्यवाद !

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सार गर्भित चर्चा |
    आशा

    जवाब देंहटाएं
  3. सुन्दर एवं सुरूचिपूर्ण तरीके से की गई चर्चा...
    आभार्!

    जवाब देंहटाएं
  4. पोस्ट को शामिल करने के लिए शुक्रिया !

    जवाब देंहटाएं

"चर्चामंच - हिंदी चिट्ठों का सूत्रधार" पर

केवल संयत और शालीन टिप्पणी ही प्रकाशित की जा सकेंगी! यदि आपकी टिप्पणी प्रकाशित न हो तो निराश न हों। कुछ टिप्पणियाँ स्पैम भी हो जाती है, जिन्हें यथा सम्भव प्रकाशित कर दिया जाता है।