धरती
पर अपना घर ही नहीं
रोज़ बनाते ताजमहल
रोज़ बनाते ताजमहल
संगमरमर
क्या कंकर ही नहीं
सूखी नदिया नाव लिए तुम
सूखी नदिया नाव लिए तुम
बहते
हो यूँ ही
क्या लिखते रहते हो यूँ ही
क्या लिखते रहते हो यूँ ही
आपके
दीपक, शमा, चिराग़
में
आग
नहीं, पर जलते हैं
अंधियारे की बाती
अंधियारे की बाती
सूरज
से सुलगाने चलते हैं
आँच नहीं है चूल्हे में
आँच नहीं है चूल्हे में
पर
काँख में सूरज दाबे हो
सीले, घुटन भरे कमरे में
सीले, घुटन भरे कमरे में
वेग
पवन का थामे हो
ठंडी-मस्त हवा हो तो भी
ठंडी-मस्त हवा हो तो भी
दहते
हो यूँ ही
कभी
कल्पना-लोक से निकलो,
सच
से दो-दो हाथ करो
कीचड़ भरी गली में घूमो
कीचड़ भरी गली में घूमो
फिर
सावन की बात करो
झाँईं पड़े हुए गालों को,
झाँईं पड़े हुए गालों को,
गाल
गुलाबी लिख डाला
पत्र कोई आया ही नहीं,
पत्र कोई आया ही नहीं,
पर
पत्र जवाबी लिख डाला
छोटे दुख भी भारी कर के
सहते
हो यूँ हीछोटे दुख भी भारी कर के
(साभार : रमेश शर्मा)
नमस्कार !
मैं, राजीव कुमार झा, चर्चामंच : चर्चा अंक :1438 में, कुछ चुनिंदा लिंक्स के साथ,आप सबों का स्वागत करता हूँ.
एक
नजर डालें इन चुनिंदा लिंकों पर............................
सज्जन धर्मेन्द्र
सुशील कुमार जोशी
धन्यवाद !!
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आगे देखिए "मयंक का कोना"
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ये यादों का सिलसिला भी, बड़ा अज़ीब होता है ...!!!
गुज़री यादों में, फिर तू याद आ गया
भर आई आँख ,दिल सुकून पा गया...
यादें...परAshok Saluja
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भाषा ऎसी चुंबकीय लिखें कि विज्ञापन दिखेंज़िंदगी के मेले पर बी एस पाबला
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जिन्द्गी न जाने , क्यूँ खफा हो गयी है ...
जिन्द्गी न जाने , क्यूँ खफा हो गयी है
हैतन्हाई के आलम में , ख़ुशी बेवफा हो गयी है
जो लिखे मोहब्बत के तराने , आज हुए बेगाने
दिल में बसी तेरी खुशबु , जाने कहाँ दफा हो गयी है..
मुकेश पाण्डेय "चन्दन
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मारन को शहतीर न मारे, और कभी इक फांस बहुत है
शस्वरं: राजेन्द्र स्वर्णकार
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वेदनाअश्क ही रह गए हैं पीने के लिए,
बोझिल-सी जिंदगी है जीने के लिए,
जख्मों को देखकर गुजरे दिन-रात,
कोई हमदर्द भी नहीं जख्म सीने के लिए...
मेरा काव्य-पिटारा पर
ई. प्रदीप कुमार साहनी
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रेमिंगटन (कृतिदेव ) हिंदी कुंजीपट की समस्या दूर करने
माइक्रोसॉफ़्ट का नया इंडिक इनपुट 3 जारी
छींटे और बौछारें पर Ravishankar Shrivastava
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यौन शोषण' से कोई आपत्ति नहीं है! उन्हें केवल ईगो-प्रॉब्लम थी
तहलका की चीफ एडिटर,
शोमा चौधरी को 'यौन शोषण' से
कोई आपत्ति नहीं है!
उन्हें केवल ईगो-प्रॉब्लम थी
और वे मात्र माफी चाहती थीं
जो उनके मित्र तरुण ने
बिना शर्त मांग भी ली !
अतः शोमा को अब कोई आपत्ति नहीं है
इस तरह कि घृणित घटना से....
ZEAL
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यौन उत्पीड़न किसे कहते हैं?भारतीय नारी पर DR. ANWER JAMAL -
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कह इमाद रहमान, होय या लीडर रमुआ -
बंगारू कि आत्मा, होती आज प्रसन्न |
सन्न तहलका दीखता, झटका करे विपन्न |
झटका करे विपन्न, सताया है कितनों को |
लगी उन्हीं कि हाय, हाय अब माथा ठोको ...
"लिंक-लिक्खाड़" पर रविकर
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घबरा सा जाता है गंदगी लिख नहीं पाता है
उल्लूक टाईम्स पर सुशील कुमार जोशी
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प्रारब्ध और उत्सव : मारिओ विर्ज़इस ठिकाने पर जर्मन कवि , कथाकर और अभिनेता मारिओ विर्ज़ की एक कविता 'इंटरनेट लाइफ़' का अनुवाद पहले भी पढ़ चुके हैं। आज प्रस्तुत हैं उनकी दो बेहद छोटी कवितायें। मारिओ के रचनाकर्म का विश्व की कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। उनकी मशहूर किताबों में 'इट्'ज लेट आइ कांट ब्रीद' , 'आइ काल द वूल्व्स' शामिल हैं।
मारिओ विर्ज़ की दो कवितायें...
कर्मनाशा पर siddheshwar singh
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तटबंध होना चाहिये......साहित्य सत्यं शिवं सुन्दर भाव होना चहिये ।
साहित्य शुचि शुभ ज्ञान पारावार होना चाहिये ।
समाचारों के लिये अखबार छपते रोज़ ही,साहित्य में समाधान सरोकार होना चाहिये...
डा श्याम गुप्त....सृजन मंच ऑनलाइन
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Pregorexia': Extreme dieting while pregnant गर्भावस्था के दरमियान न सिर्फ भूखों रहना ,डाईट-
इंग भी करना ,बल्कि केलोरी ज्यादा खर्च करने के लिए व्यायाम भी करना ताकि अल्प खाया पीया भी काफूरहो जाए,केलोरी उड़ाने की दर यानि मेटाबोलिक रेट बढ़ जाए pregorexia कहा जा सकता है। यह एक प्रकार काखानपान सम्बन्धी विकार है...
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"लगे खाने-कमाने में"
काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
एक गीत
"लगे खाने-कमाने में"
छलक जाते हैं अब आँसू, ग़ज़ल को गुनगुनाने में।
नही है चैन और आराम, इस जालिम जमाने में।।
नदी-तालाब खुद प्यासे, चमन में घुट रही साँसें,
प्रभू के नाम पर योगी, लगे खाने-कमाने में।
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मधु सिंह : विशालाक्षा (6 )
गले लगा हंसिनी को अपनेविशालाक्षा फफ़क पड़ी देख यक्ष के मन-बिम्बों को ज्वाला उर की भड़क पड़ी
बड़े प्यार से लगी वो कहने सुनो विरहिणी सुनो हंसिनी चित्रकूट जाना है तुमको है पता राह का तुझे हंसिनी ...
बहुत बढ़िया। आज के दिन के पठन के लिए बढ़िया लिंक्स।और हाँ, मेरी नई पोस्ट को यहा इस मंच पर साझेदारी के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर चर्चा ..आभार
जवाब देंहटाएंबढ़िया लिंक्स
जवाब देंहटाएंबढ़िया चर्चा प्रस्तुति ..
आभार!
सरस जी कि रचना ने अंतस में इतन विस्फोट किये हैं कि अभी भी जूझ रहा हूँ, बहुत ही यथार्थपरक रचना, उनको हार्दिक बधाई ऐसी कालजयी रचना के लिये……
जवाब देंहटाएं"मैं कि अपनी सोच ...
अपनी पहचान है ,
मैं चेतना का उद्गम है
मैं अपने आप में पूरा ब्रह्माण्ड है -
इसके अपने नियम
अपनी परिभाषाएं हैं
अपने स्वप्न
अपनी अभिलाषाएं हैं -
मैं वह बीज है
जो दुनिया का गरल पी सकता है
मैं वह शक्ति
जो उसे भस्म भी कर सकता है -
मैं वह दीप
जो जलता है कि अंधकार मिटे
मैं वह दम्भ !
जो कायनात जलाके राख करे -
मैं वह वज्र
जो घातक भी है
रक्षक भी
मैं वह निमित्त
जो सृष्टि को गतिमान करे !"
रमेश शर्मा जी कि निम्न पंक्तियों ने भी मन मोहा,
"कभी कल्पना-लोक से निकलो,
सच से दो-दो हाथ करो
कीचड़ भरी गली में घूमो
फिर सावन की बात करो"
बहुत ही सुन्दर चर्चा, राजीव जी को हार्दिक बधाई, मायनक जी को प्रणाम।
त्रुटि के लिए क्षमा, यहाँ मायनक नहीं बल्कि मयंक लिखा था।
हटाएं
जवाब देंहटाएंशानदार सेतु उपस्थित हैं चर्चा मंच में हमें भी भिठाने के लिए आपका आभार।
आपका आभार।
जवाब देंहटाएंसुन्दर बिम्ब।
मधु सिंह : विशालाक्षा (6 )
गले लगा हंसिनी को अपनेविशालाक्षा फफ़क पड़ी देख यक्ष के मन-बिम्बों को ज्वाला उर की भड़क पड़ी
बड़े प्यार से लगी वो कहने सुनो विरहिणी सुनो हंसिनी चित्रकूट जाना है तुमको है पता राह का तुझे हंसिनी
भरोसा हमें अपने जज़्बात पर है,
जवाब देंहटाएंमगर उनको एतबार अपने पे कम हैं।
अन्धेरों-उजालों भरी जिन्दगी में,
हर इक कदम पर भरे पेंच-औ-खम हैं।
वाह बहुत खूब।
वाह बहुत खूब शास्त्री जी क्या खाने हैं अभिव्यक्ति के।
जवाब देंहटाएंहुए बेडौल तन, चादर सिमट कर हो गई छोटी,
शजर मशगूल हैं अपने फलों को आज खाने में
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"लगे खाने-कमाने में"
काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
एक गीत
"लगे खाने-कमाने में"
भरोसा हमें अपने जज़्बात पर है,
मगर उनको एतबार अपने पे कम हैं।
अन्धेरों-उजालों भरी जिन्दगी में,
हर इक कदम पर भरे पेंच-औ-खम हैं।
वाह बहुत खूब। सशक्त भाव और अर्थ की अन्विति एवं रूपक तत्व लिए है यह रचना।
अच्छी ना लागे शकल, रहे व्यर्थ मुँहफाड़ |
जवाब देंहटाएंन जाने क्यूँ मंच पर, जब तब रहे दहाड़ |
मच्छी को मख्खी कर लो भाई साहब ,आभार आपकी टिपण्णी का।
जब तब रहे दहाड़, हाड़ दुश्मन का कांपे |
होय अगर जो हिन्दु, इन्हे भरपेट सरापे |
पग धरते गर शीश, नाक पर बैठे मच्छी |
फिर भी रहते मौन, शकल तब लगती अच्छी ||
कह इमाद रहमान, होय या लीडर रमुआ -
बंगारू कि आत्मा, होती आज प्रसन्न |
सन्न तहलका दीखता, झटका करे विपन्न |
झटका करे विपन्न, सताया है कितनों को |
लगी उन्हीं कि हाय, हाय अब माथा ठोको ...
"लिंक-लिक्खाड़" पर रविकर
बहुत बढ़िया लिंक्स .... शामिल करने का आभार
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर चर्चा राजीव जी मेरी रचना को शामिल करने के लिए हार्दिक आभार ,आपके साथ आदरणीय शास्त्री जी को मयंक के कौने के लिए और वीरेंदर कुमार शर्मा जी को बेहतरीन प्रतिक्रियाओं के लिए हार्दिक बधाई |
जवाब देंहटाएंविचारों की सुन्दर चर्चा का प्रवाह ,बहुत खूब
जवाब देंहटाएं्सुन्दर चर्चा मंच
जवाब देंहटाएंबढ़िया लिंक्स
जवाब देंहटाएंबढ़िया चर्चा प्रस्तुति ..
'यौन उत्पीड़न किसे कहते हैं?" को शामिल करने के लिए आभार!
बहुत अच्छी कड़ियाँ मिलीं। मुझे शामिल करने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंमैं आपके स्नेह का दिल से आभार व्यक्त करता हूँ ....
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें!
Great links...thanks.
जवाब देंहटाएंबढ़िया चर्चा-
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय-
आभार गुरुवर
देर में उपस्थित होने के लिए क्षमा , आदरणीय बहुत सुंदर प्रस्तुति व अच्छे सूत्र , धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआभार आपका
जवाब देंहटाएं23/11/ 2103 की सुंदर चर्चा में दिखी उल्लूक की दो दो जगह चर्चा बहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएं1. कभी तो लिख दिया कर यहाँ छुट्टी पे जा रहा है
2. घबरा सा जाता है गंदगी लिख नहीं पाता है